विशेषाधिकारों का स्वीकार सामाजिक परिवर्तन को संभव करेगा
अगर अगड़ी जाति को संविधान सम्मत और समता-मूलक समाज के अनुरूप अपने वैश्विक दर्शन को ढालना है, तो अपने विशेषाधिकारों पर सवाल करना होगा.
मनोज कुमार झा
विश्वविद्यालय में सामाजिक आंदोलनों पर विमर्श के दौरान कई किताबों में से एक किताब हुआ करती थी- ‘ह्वाइट प्रिविलेज: अनपैकिंग द इनविजिबल नैप्सैक.’ इस किताब में लेखक पेगी मैकिंतोश ने तर्क दिया है कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में श्वेत लोगों को सिर्फ उनकी रंग के आधार पर समाज में कुछ अनर्जित लाभ और विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं.
मैकिंतोश ‘अदृश्य बस्ते’ के रूपक के माध्यम से कहती हैं कि ये विशेषाधिकार अक्सर उन लोगों द्वारा अदृश्य या अनदेखे कर दिए जाते हैं जो उनसे लाभान्वित होते हैं. लेकिन अश्वेत लोगों के जीवन पर इनका महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. दूसरी एक और पुस्तक, डेविड गोल्डनक्रांज़ की ‘श्वेत पुरुष विशेषाधिकार: यह कैसे हुआ और यह हमारी सोच से भी बदतर क्यों है’ में भी कमोबेश उसी दृष्टिकोण से यह बताया गया है कि रंगभेद के आधार पर कैसे इस प्रकार के विशेषाधिकार-प्राप्त लोगों की तथाकथित एतिहासिक स्मृति और सामान्य ज्ञान का हिस्सा बन जाते हैं.
दोनों किताबें इस बात पर बल देती हैं कि ये विशेषाधिकार अनर्जित हैं, जिसका अर्थ है कि ये व्यक्तिगत योग्यता या उपलब्धि पर आधारित नहीं हैं, बल्कि प्रणालीगत असमानता पर आधारित हैं. ऐसे विशेषाधिकारों के अन्य रूप (जैसे पुरुष विशेषाधिकार) श्वेत विशेषाधिकार के साथ जुड़ते हैं, जिससे इनका दायरा व्यापक हो जाता हैं.
विडंबना है कि ऐसे विशेषाधिकार से लाभ उठाने वाले लोग अक्सर इसे पहचान नहीं पाते हैं या जानकर भी स्वीकार करने से इनकार करते हैं. अमेरिकी समाज के इस ‘श्वेत विशेषाधिकार’ के विमर्श को उधृत करने के पीछे स्पष्ट तौर पर मेरी मंशा है कि सीढ़ीनुमा जातिगत पदानुक्रम वाले अपने भारतीय समाज की नब्ज़ भी थोड़ी टटोली जाए.
असंख्य जातियों में बंटे हमारे समाज में क्या कभी इस पदानुक्रम में सबसे ऊपर की जातियों ने अपने विशेषाधिकार को परखने, समझने और इसका अवलोकन करने की कोशिश की है? इस बात से न तो स्मृति और न ही साक्ष्य के आधार पर इनकार किया जा सकता है कि अगड़ी जाति में जन्म लेने से सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ के आधार पर कई विशेषाधिकार प्राप्त हो जाते हैं.
भारत जैसे जाति व्यवस्था वाले समाजों में, इन विशेषाधिकारों के आधार पर इन जातियों के पास अक्सर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और आर्थिक संसाधनों तक बेहतर पहुंच होती है. इससे नौकरी की संभावनाएं और वित्तीय स्थिरता तुलनात्मक रूप से अन्य जातियों से बेहतर होती है. इसके अलावा जाति और लिंग के बीच का अंतर्संबंध भी कई विसंगतियों को जन्म देता है और उनका पोषण करता है. इसके चलते असमानताएं बढ़ती चली जाती हैं और कालांतर में सामान्य जीवन का हिस्सा हो जाती हैं. इसे सामाजिक विज्ञान में प्रतिच्छेदन यानी इंटरसेक्शनलिटी (intersectionality) की प्रक्रिया कहते हैं.
उच्च और अगड़ी जाति सामाजिक स्थिति का सूचक होती है, जिससे सामाजिक और व्यावसायिक क्षेत्रों में सम्मान और प्रभाव बढ़ जाना सामान्य है. आम तौर पर अगड़ी जाति के पास बेहतर नेटवर्किंग के अवसर और कनेक्शन होते हैं जो न सिर्फ करिअर में उन्नति बल्कि अन्य व्यावसायिक अवसरों को सुविधाजनक और सुगम बना देते हैं. स्थानीय और राष्ट्रीय संदर्भ में देखें तो, अगड़ी जाति के पास जन्म से ही राजनीतिक प्रभाव और प्रतिनिधित्व अधिक है.
राज्यों की विधायिका से लेकर और देश की संसद तक का विश्लेषण अगर किया जाए, तो साक्ष्य वही दुहराते हैं. लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण और दीगर तथ्य है कि अगड़ी जाति के व्यक्ति के पास एक सांस्कृतिक-सामाजिक पूंजी का भरोसा रहता है. इस समूह का हिस्सा होने की वजह से अक्सर सांस्कृतिक-बौद्धिक और सामाजिक पूंजी से निर्बाध संपर्क भी बना रहता है. अगर कठिन रास्तों पर कदम डगमगा जायें, तो उन हाथों की कमी नहीं होती जो क़दमों को सहारा देते हैं. इस प्रकार की पूंजी की उपलब्धता जीवन के विभिन्न पहलुओं में पहुंच और सफलता को आसान कर देती है.
मुझे इस बात को स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं है कि मुझे जीवन के कई मोड़ पर केवल इसलिए लाभ मिले हैं क्योंकि मैं पुरुष हूं और तथाकथित ‘उच्च जाति’ में मेरा जन्म हुआ. मेरे समकक्ष महिला, ‘पिछड़ी जाति’, दलितों, और अल्संख्यकों को ऐसे लाभ नहीं मिले. इसीलिए मेरा मानना है कि अवसर की समानता सामाजिक न्याय का आधारभूत हिस्सा है.
अपनी कालजयी रचना ‘जाति का विनाश’ में डॉ. बीआर आंबेडकर भारत में जाति व्यवस्था की एक सशक्त आलोचना प्रस्तुत करते हैं, जिसके बारे में उनका तर्क है कि यह एक ऐसा सामाजिक पदानुक्रम है जो असमानता और भेदभाव को कायम रखता है और इसके लिए दैवीय साक्ष्य तक ढूंढ लाने की कोशिश करता है. उत्पीड़न की व्यवस्था के रूप में जाति की आलोचना में आंबेडकर जाति को एक ऐसी व्यवस्था के रूप में वर्णित करते हैं जो समाज को जन्म के आधार पर कठोर पदानुक्रमों में विभाजित करती है, जहां ‘निम्न’ जातियों को ‘उच्च’ जातियों द्वारा हाशिए पर रखा जाता है और उनका उत्पीड़न किया जाता है. वह इस बात पर जोर देते हैं कि यह व्यवस्था न केवल एक सामाजिक गैर बराबरी का व्याकरण है बल्कि घोर अन्याय का दस्तावेज़ भी है जो व्यक्तियों को अमानवीय बनाता है और उनकी क्षमता को दबाता है.
हाल के समय में, खासकर 2016 में रोहित वेमुला की दुखद आत्महत्या के बाद जब मैकिंतोश की पुस्तक का केंद्रीय विमर्श पुनः चर्चा में आया, ऐसा लगा कि अमेरिकी समाज के तर्ज़ पर हमारे अपने परिवेश में अगड़ी जातियों के बीच ‘उच्च जातियों के विशेषाधिकार’ के संदर्भ में इस व्यवस्था की स्वीकारोक्ति के साथ चिंतन और आत्मावलोकन की एक परिपाटी विकसित होगी. यह भी उम्मीद थी कि श्वेत अमेरिकी समुदाय के एक हिस्से ने अगर अपने विशेषाधिकारों को लेकर स्वीकारोक्ति के पश्चात कुछ ठोस बदलाव की ओर कदम बढ़ाए हैं, तो क्या इस प्रकार की कोशिश हमारे समाज में नहीं होनी चाहिए?
‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ आंदोलन से अमेरिकी समाज का कोई हिस्सा अप्रभावित नहीं रहा. राजनीति, व्यवसाय, अकादमी, संचार और सांस्कृतिक क्षेत्रों में विमर्श गहरा और तेज़ हुआ कि रंगभेद की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नीतियों और प्रणालयों को तोड़ना होगा.
अगर भारत की अगड़ी जाति के लोगों को संविधान सम्मत समता-मूलक समाज के चरित्र के अनुरूप अपने वैश्विक दर्शन को ढालना है तो अपने चले आ रहे विशेषाधिकारों को सवालिया नज़र से देखना शुरू करना होगा. हमें ये स्वीकार करना होगा कि ये विशेषाधिकार अगर जीवन के अवसरों और अनुभवों को प्रभावित करते रहे हैं तो इनके साथ-साथ नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारियां भी जुड़ी होती हैं.
इन ‘विशेषाधिकार से लबालब’ लाभों को पहचानना असमानता को दूर करने और अधिक समतापूर्ण समाज की दिशा में काम करने की दिशा में एक कदम हो सकता है. लेकिन ये सामूहिकता में होना चाहिए और बिना किसी विलंब के. इन विशेषाधिकारों पर सवाल उठाने की इस प्रक्रिया के ज़रिये हमें असहज करती सच्चाइयों का सामना करना होगा. विशेषाधिकारों को स्वीकार करना तोहमतनामा नहीं बल्कि बड़े बदलाव का अवसर है.
सौजन्य : द वायर
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