उत्तर प्रदेश में बसपा : राजनीतिक फलक पर दलित प्रतिनिधित्व की वैचारिक भूमि (तीसरा भाग)
दलित सांस्कृतिक चिंतन का पुनरूत्थान : दृष्टिकोण और उसकी सीमाएं
महाराष्ट्र डॉ. आंबेडकर की राजनीतिक भूमि थी। यहां उन्होंने जिस दलित राजनीति की नींव डाली थी और उसे जिस तरह समझा और सूत्रबद्ध किया था, उसने 1970 के दशक में एक नया जीवन अख्तियार किया। ‘दलित पैंथर’ के अनुभवों के आधार पर खुद को आंबेडकरवादी कहने वाले चिंतकों, खासकर दलित साहित्यकारों ने दलित साहित्य का सिद्धांत गढ़कर जाति और वर्ग की राजनीति का स्पष्ट विभाजन करते हुए वर्ग की अवधारणा को दलित चिंतन से बाहर कर दिया। (दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र : डॉ. शरण कुमार लिंबाले, राजकमल प्रकाशन) डॉ. आंबेडकर की सैद्धांतिकी एक नये सिरे से पढ़े जाने की ओर बढ़ चुकी थी और भारत में जाति की संरचना को वर्ग की अवधारणा के बाहर रखकर पढ़े जाने का आग्रह तेजी से बढ़ा। हालांकि वर्ग और जाति को साथ रखकर पढ़ने की सामानांतर धारा बुद्ध, मार्क्स और डॉ. आंबेडकर के सिद्धांतों को एक साथ रखकर पढ़ने के आग्रह के साथ बनी रही, लेकिन यह पहले के मुकाबले क्षीण हो गई थी। लेकिन मार्क्सवादी चिंतकों में यह धारा तेजी से अपनी जगह बनाती गई। 1980 में जाति की अवधारणा को वर्ग पर तरजीह देकर पढ़ने का आग्रह दलित चिंतकों में तेजी से बढ़ा और नई पीढ़ी ने महाराष्ट्र में नामांतरण आंदोलन को शुरू कर दलित आंदोलन को फिर से खड़ा करने का प्रयास किया। इसका सीधा प्रभाव दलित लेखन और आंबेडकर साहित्य का प्रकाशन और उनकी मूर्तियों की स्थापना आदि के रूप में देखने को मिला और इसने एक आंदोलन का रूप ले लिया। नए लेखक, शोधार्थी और संस्कृतिकर्मियों का एक नया दौर हम महाराष्ट्र में उभरते हुए देख सकते हैं।
महाराष्ट्र में नए सिरे से दलित चिंतन की वैचारिकी, सांस्कृतिक चिंतन और डॉ. आंबेडकर की सैद्धांतिकी के गठन का अनुभव कांशीराम के पास था और वह उसे लेकर दिल्ली और उत्तर प्रदेश की जमीन पर उतार रहे थे। खासकर, उनकी सांस्कृतिक टोली ने जिस मेहनत के साथ गांव-गांव जाकर बुद्ध और डॉ. आंबेडकर के संदेशों का प्रचार किया तथा गीतों और नाटकों के माध्यम से ब्राह्मणवाद पर प्रहार किया, उसका असर दलित समाज पर गहरा पड़ा। उत्तर प्रदेश में डॉ. आंबेडकर की मूर्तियां गांव, कस्बों से लेकर शहरों, मुहल्लों और चौराहों पर दिखाई देने लगीं, जिसमें संविधान की पुस्तक एक अनिवार्य हिस्से की तरह थी। डॉ. आंबेडकर के नवबौद्ध दर्शन पर नए सिरे से बौद्ध मठों का उद्भव दिखने लगा। आर्य-अनार्य की बहस पर आधारित पुस्तकों में मूलवासी की अवधारणा को स्थापित करती किताबें सामने आ रही थीं। दिल्ली और उत्तर प्रदेश, उस समय उत्तराखंड इसका हिस्सा था; इन राज्यों में 1985 तक दलित साहित्य की कोई जगह नहीं थी, नए लेखकों के केंद्र बन रहे थे और इतिहास के दलित नायकों को सामने लेकर आ रहे थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ‘जूठन’ (आत्मकथा) लिखकर हिंदी में एक नई शुरुआत कर दी थी और उनकी कविताएं दलित जीवन की सच्चाई को ब्राह्मणवादी जमींदारी व्यवस्था पर चोट करते हुए लोकप्रिय हो रही थीं। उत्तर प्रदेश दलित साहित्य के मानकों पर सांस्कृतिक उथल-पुथल की ओर चल पड़ा था।
यहां यह जरूर याद रखना होगा कि जब बसपा का गठन हो रहा था उसी समयावधि में भाजपा का भी गठन हुआ। भाजपा का सारा जोर कांग्रेस की आधारभूमि हथियाते हुए अखिल भारतीय राजनीति के पटल पर आना था। उसका मकसद हिंदुत्व की घोर प्रतिक्रियावादी संस्कृति के वर्चस्व को स्थापित करना था। यद्यपि, कांशीराम भाजपा और कांग्रेस, दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते थे। बसपा ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की आधारभूमि को खिसका दिया था। लेकिन भाजपा बसपा के सामानांतर बनी रही, मजबूत होते हुए बसपा की आधारभूमि खिसकाने की ओर निरंतर बढ़ती रही।
बसपा जिस ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक अवस्थिति के खिलाफ लोगों को खड़ा करते हुए अपनी राजनीति जमीन तैयार कर रही थी, उसी ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की संस्कृति को भाजपा मजबूत करते हुए अखिल भारतीय स्तर पर अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत कर रही थी। दोनों सामानांतर थे, और सांस्कृतिक भूमि पर दोनों के सम्मिलन का कोई बिंदू नहीं था। लेकिन, राजनीतिक क्षितिज पर ये दो धाराएं एक-दूसरे के साथ मिलती रहीं, और अवसरवादी गठजोड़ बनाया और सरकारें भी बनाई तथा एक ऐसे सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षरण को जन्म दिया, जिसमें घोर प्रतिक्रियावादी अखिल भारतीय चरित्र ग्रहण कर लिया जबकि समाज में बदलाव की सांस्कृतिक नींव बनाने और नई राजनीतिक आकांक्षा का निर्माण करने वाली बसपा अपने आधार में सिमटती गई।
गठजोड़ से बसपा की सांस्कृतिक और राजनीतिक अवस्थिति पर गहरा असर पड़ा। भाजपा घोर प्रतिक्रिवादी सांस्कृतिक अवधारणा को लेकर रथयात्रा करते हुए पूरे देश में वोट की बहुंसख्यावाद को हिंदूत्व के ब्राह्मणवादी एकाधिकार में बदलने की ओर बढ़ रही थी। यह हिंदुत्व का सांस्कृतिक पुनरूत्थानवाद ही नहीं था, यह नए सिरे से फासीवाद का पुनर्गठन था। यह भी मध्यवर्ग की आर्थिकी और सांस्कृतिक आकांक्षा पर खड़ा हो
रहा था और इसी जमीन पर खड़े होकर जमींदारों, भूस्वामियों और कारपोरेट समूहों को उनकी सुरक्षा की गारंटी दे रहा था। इस राजनीतिक अर्थशास्त्र में बसपा एक निम्न-मध्यवर्ती आर्थिक संरचना के एक बेहद छोटे से सामाजिक आधार में सिमटने की ओर बढ़ गई। उत्तर प्रदेश की आर्थिक और सामाजिक पृष्ठिभूमि बसपा को इससे अधिक जमीन दे सकने की स्थिति में नहीं थी। यही कारण था, जिसकी वजह से भारत की संपूर्ण सामाजिक संरचना जाति और वर्ण पर आधारित होने के बावजूद, बसपा उत्तर प्रदेश की एक क्षेत्रीय पार्टी बनने की ओर बढ़ गई और सरकार बनाने के लिए गठजोड़ की घोर अवसरवादी राजनीति का हिस्सा बन गई।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में मजबूत पकड़ रखने वाले चौधरी चरण सिंह,जो केंद्र में थोड़े समय के लिए देश के प्रधानमंत्री चुने गये थे, ने 1980 में लोकदल की स्थापना की थी। इस पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर बनाने का दावा किया गया, लेकिन इसकी प्रकृति उत्तर प्रदेश से बाहर जाती हुई नहीं दिखती थी इस पार्टी के पदाधिकारियों की जाति-संरचना यदि देखें, तो 1980 से 1987 तक उच्च जातियों का प्रभुत्व दिखाई देता है। वर्ष 1988 में समाजवादियों की विविध धाराएं और लोक दल की टूट से बने घटक ने एक बार फिर मिलकर वी.पी. सिंह के नेतृत्व में जनता दल का गठन किया। वर्ष 1989 में इस पार्टी की जाति संरचना में भी ऊपरी जातियों का वर्चस्व कायम रहा। वर्ष 1994 में इसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की जाति संरचना में सवर्ण 33.11 प्रतिशत थे, मध्यम जातियां 13.68 और अन्य पिछड़ी जाति 24.47 प्रतिशत थे। जबकि दलित और आदिवासी कुल मिलाकर लगभग 8 प्रतिशत थे।
मुसलमान 5.76 प्रतिशत थे। (साइलेंट रिवोल्यूशन : क्रिस्टोफर जैफरलो) 1984-1989 के दौर में कांशीराम ने बसपा की स्थापना के साथ ही इसके सांगठनिक ढांचा और राजनीतिक आधार को मजबूत करने के लिए नारा दिया था– “बहुजन समाज के तीन कमान; दलित, ओबीसी और मुसलमान”। वर्ष 1984 के आम लोकसभा चुनाव में बसपा ने कैराना में अपना उम्मीदवार उतारकर वोट की गणित का प्रयोग किया। इस चुनाव क्षेत्र में मुसलमान 30 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 18 प्रतिशत थे।
चुनाव में कुल 52.28 प्रतिशत वोट पड़े, जिसमें से बसपा की उम्मीदवार मायावती को 44,445 मिले, जो कुल मतों का 9.94 प्रतिशत थे। इतने मतों के साथ वह तीसरे नंबर पर थीं जबकि कांग्रेस ने यह सीट जीत ली थी। वहीं वर्ष 1985 में बिजनौर की लोक सभा सीट पर उपचुनाव हुए, जिसमें मायावती को 61,504 वोट मिले, जो कुल वोट का 18 प्रतिशत था। 1987 के लोकसभा उपचुनाव में हरिद्वार से एक बार मायावती ने चुनाव लड़ा। इस बार वोट की संख्या 1,25,199 पहुंच गई, जो कुल वोट का 32.70 प्रतिशत था। फिर भी यह चुनाव मायावती के पक्ष में नहीं आया। 1989 में बिजनौर सीट पर 37.96 प्रतिशत वोट हासिल कर वह चुनाव जीतने में सफल रहीं। इससे मिलती-जुलती स्थिति कांशीराम की भी रही। इसे निम्न आंकड़ों के माध्यम से देखना उपयुक्त होगा।
1985 की उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने 425 सीटों में से 269 सीट हासिल कर सरकार बनाया। लोकदल को 84 और भाजपा को 16 सीटें हासिल हुईं। भले ही बसपा को एक भी सीट नहीं मिली, लेकिन इसे 4 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए। लेकिन, अगले ही साल बिजनौर की सीट पर उपचुनाव में बसपा की उम्मीदवार मायावती ने 18 प्रतिशत वोट हासिल कर अपनी उपस्थिति को मजबूती से दर्ज करा दिया। चुनाव के आंकड़े बता रहे थे कि बसपा पंजाब और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के वोट बैंक को अपने पक्ष में कर रही थी। इससे भले ही बसपा को शुरूआती दौर में जीत न मिल रही हो, कांग्रेस को बड़ा नुकसान होना शुरू हो गया था।
कांशीराम ने बामसेफ की स्थापना और फिर डीएस-4 के समय में जिस तरीके का प्रचार अभियान चुना था, उसमें हर घर संपर्क साधना एक अनिवार्य हिस्सा था। इस संपर्क अभियानों से बसपा को एक और नेता मायावती मिली। 1988 में अमिताभ बच्चन के द्वारा इलाहाबाद लोकसभा सीट से इस्तीफा दिए जाने के बाद खाली सीट पर हुए उपचुनाव में वी.पी. सिंह, अनिल शास्त्री और कांशीराम के बीच एक त्रिकोणीय संघर्ष सामने आया।
कांशीराम के लिए यह बसपा की ‘दलित दावेदारी’ थी और इस पक्ष में 19 प्रतिशत वोट पड़े। यह चुनाव आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बसपा की स्पष्ट रणनीति का भी आगाज था। अगले साल लोकसभा के आम चुनाव में कांग्रेस 192 सीट पर सिमट गई। लेकिन, इस चुनाव के होने तक और उसके बाद उत्तर प्रदेश में दंगों का दौर शुरू हो चुका था। पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में मुरादाबाद, नगीना, मेरठ, बिजनौर जैसे शहर और उनके कस्बों तक में यह आग फैल रही थी, जिसमें कुछ जगहों पर दंगा रोकने के नाम पर पीएसी और कुछ सरकारी एजेंसियां भी शामिल होते हुए दिख रही थीं; और विभाजन का दौर शुरू हो गया। (विभूति नारायण राय, हाशिमपुरा 22 मई, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली)
दलित और मुस्लिम समुदाय पर हमले शुरू हो गए। कांग्रेस अपने वोट बैंक और क्षेत्र को बचाने के लिए हिंदू वोट बैंक पर दावेदारी का प्रयास कर रही थी, वहीं भाजपा हिंदुत्व की घोर प्रतिक्रियावादी सांस्कृतिक जमीन बनाने के मजबूत अभियान का शुरू कर चुकी थी। कांग्रेस भाजपा के बिछाए बिसात पर खेलने का प्रयास कर रही थी। वोट पर दावेदारी का वह खेल शुरू हो चुका था, जो भारत के लोकतंत्र की चुनावी बिसात का ही एक अनिवार्य, लेकिन नया पन्ना था। 1989 में उत्तर प्रदेश में हुए लोकसभा और विधानसभा चुनाव के परिणाम को निम्न आंकड़ों में देखा जा सकता है–
हम देख सकते हैं कि भाजपा का विधानसभा चुनाव में पिछले चुनाव में हासिल सीट 16 से बढ़कर 57 पर पहुंच जाना एक गुणात्मक फर्क को दिखाता है। लोकसभा की उसकी 8 सीटों पर उसकी जीत एक महत्वपूर्ण कदम था। वोट का गणित उसकी रणनीति से मेल खाता हुआ दिख रहा था। बसपा ने विधानसभा में जो 13 सीटें हासिल की थी, उसमें 6 मुसलमान, 5 अनुसूचित जाति और 2 ओबीसी उम्मीदवार थे। विधान सभा चुनाव में उसे 9.46 प्रतिशत वोट मिला था। विधानसभा की 50 ऐसी सीटें थीं, जिसमें से 4 पर दूसरा और शेष पर बसपा का तीसरा स्थान था। बसपा की वोट गणित में दलित और मुस्लिम समुदाय की एकता का परिणाम उसकी रणनीति के अनुसार था। (आंकड़े पूर्वोक्त पुस्तक से)
वर्ष 1989 बहुजन समाज पार्टी के लिए एक निर्णायक वर्ष था। भले ही कांशीराम की वोट की गणित का सूत्र वह परिणाम नहीं ला रहा था, जिसकी उन्हें दरकार थी, लेकिन इसी साल वी.पी. सिंह के नेतृत्व में केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। उसके साथ-साथ मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में जनता दल की सरकार बनी। वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की संस्तुतियों को लागू करने का निर्णय लिया। इस निर्णय के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ही तैयार नहीं थीं। केंद्र में बहुमत की सरकार न होने की वजह से इस निर्णय पर वी.पी. सिंह की सरकार गिर गई। और, देश में अगड़ा और पिछड़ा का संघर्ष मुखर होकर सामने आया। लेकिन, इसने बहुजन समाज की राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक अवस्थिति को सामने ला दिया। अब इसे पीछे धकेला नहीं जा सकता था।
अयोध्या में ‘राम मदिर’ के नाम पर कांग्रेस और भाजपा का गठजोड़ सामने आ रहा था, वहीं जनता दल के नेतृत्व में मुलायम सिंह यादव की सरकार सामाजिक न्याय की अवधारणा को बनाए रखने की ओर बढ़ रही थी। इस टकराहट के समय में तात्कालिक तौर पर भाजपा का आधार मजबूत होता हुआ दिखा, लेकिन कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर बहुजन की रणनीति को नहीं छोड़ा। भाजपा को भी एक पिछड़े समुदाय से आये कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाना पड़ा। हालांकि, उनकी राजनीति फासीवादी हिंदुत्व से अलग नहीं थी। 1991 के विधान सभा चुनाव में भाजपा ने 221 सीटें हासिल कर सत्ता में आई। कांग्रेस का पतन जारी रहा और पिछले चुनाव में हासिल सीट की भी आधी 46 पर सिमट गई। इस चुनाव में बसपा को महज एक सीट का नुकसान हुआ। आगे बहुजन राजनीति का रास्ता साफ दिख रहा था। कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव से मुलाकात कर आगामी उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में साथ आने और साथ ही लोकसभा चुनाव में एक-दूसरे को समर्थन देने का निर्णय लिया। यह एक नए दौर की शुरुआत थी।
सौजन्य : Forward press
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