छत्तीसगढ़ः आदिवासियों के आरक्षण पर क्यों उठाए जा रहे हैं सवाल

छत्तीसगढ़ में ईसाई आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी से बाहर करने की मांग तेज़ होती जा रही है.
डी-लिस्टिंग या असूचीकरण की मांग ऐसे समय में हो रही है, जब राज्य में अगले छह महीने में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं.
शैक्षणिक संस्थाओं या नौकरियों में उसी समुदाय को आरक्षण की सुविधा हासिल होती है जिनका नाम अनुसूचित जाति या जनजाति की लिस्ट में शामिल हो.
पिछले कुछ महीनों में भाजपा और आरएसएस से जुड़े हिंदु संगठनों ने छत्तीसगढ़ में, बस्तर से लेकर सरगुजा तक डी-लिस्टिंग की मांग को लेकर कई बड़ी रैलियां की हैं. इसके जवाब में ईसाई संगठनों ने भी कुछ इलाक़ों में प्रदर्शन किया.
छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार में मंत्री रहे आदिवासी नेता गणेशराम भगत, डी-लिस्टिंग के मुद्दे पर सक्रिय, जनजातीय सुरक्षा मंच के राष्ट्रीय संयोजक हैं.
गणेशराम भगत कहते हैं, “हमारी मांग बहुत साफ़ है. आदिवासी समाज के जिस व्यक्ति ने ईसाई या इस्लाम धर्म को अपना लिया, जनजाति प्रथा को छोड़ दिया, पारंपरिक पूजा-पाठ बंद कर दी, रुढ़ि प्रथा को बंद कर दिया, उसे आदिवासी होने के नाते मिलने वाला आरक्षण बंद करना चाहिए.”
हालांकि ईसाई संगठन डी-लिस्टिंग की मांग को, महज सांप्रदायिक तनाव बढ़ा कर, वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश बता रहे हैं.
छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फ़ोरम के अध्यक्ष अरुण पन्नालाल का कहना है कि प्रकृति पूजक कहे जाने वाले जिन आदिवासियों ने पिछले कुछ सालों में आदिवासी परंपरा को छोड़ कर हिंदू धर्म अपना लिया है, क्या उन्हें भी आरक्षण के दायरे से बाहर करने की मांग की जाएगी?
छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज भी डी-लिस्टिंग की मांग से सहमत नहीं है.
सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम का कहना है कि जिन आदिवासियों की पहचान बदल रही है, जो धर्मांतरित हो रहे हैं, उनके लिए कोई रास्ता निकालने पर विचार किया जा सकता है लेकिन डी-लिस्टिंग से तो आदिवासियों की ताक़त ही ख़त्म हो जाएगी.
अरविंद नेताम ने बीबीसी से कहा, “इस तरीक़े से आदिवासियों की संख्या को कम बता कर, आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण, वन अधिकार, पांचवीं-छठवीं सूची का इलाक़ा व उससे संबंधित अधिकार और पंचायत एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया जैसे अधिकारों को हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म कर के आदिवासियों को हाशिये पर डाल दिया जाएगा.”
आदिवासी, ईसाई और चुनाव
लगभग तीन करोड़ की आबादी वाले छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की जनसंख्या 32 फ़ीसदी के आसपास है.
2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में मुस्लिम आबादी 2.02 प्रतिशत और ईसाई आबादी 1.92 प्रतिशत थी. इसी तरह राज्य में सिख आबादी 0.27, बौद्ध 0.28 और जैन 0.24 प्रतिशत थी.
हालांकि ईसाई संगठनों का दावा है कि ईसाई धर्म में आस्था रखने वाले, चर्च जाने वाले, प्रार्थना करने वाले ‘विश्वासियों’ की संख्या इससे कई गुणा अधिक है और राज्य की विधानसभा की 90 में से कम से कम 30 सीटों पर उनका वोट महत्वपूर्ण है.
उदाहरण के लिए जशपुर ज़िले में आदिवासियों में 35 फ़ीसदी से अधिक आबादी आदिवासी ईसाइयों की है तो अविभाजित सरगुजा ज़िले में यह संख्या सात फ़ीसदी के आसपास है.
सामाजिक कार्यकर्ता बृजेंद्र का कहना है कि आदिवासी समाज की गणना में पिछले 70 सालों से गड़बड़ियां हो रही हैं, इसलिए आदिवासियों की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है.
वे दस्तावेज़ों के साथ बताते हैं कि 1891 में जब जनगणना की गई थी, तब आदिवासियों को ‘फ़ारेस्ट ट्राइब’ की श्रेणी में रखा गया था.
1901 में इसे बदल कर ‘एनिमिस्ट’ यानी प्रकृतिवादी, 1911 में ‘ट्राइबल एनिमिस्ट’, 1921 में ‘हिल एंड फॉरेस्ट ट्राइब’, 1931 में ‘प्रिमिटिव ट्राइब’ और 1941 में यह सिर्फ ‘ट्राइब्स’ कर दिया गया.
बृजेंद्र कहते हैं, “1951 में जब जनगणना हुई तो आदिवासियों वाला कॉलम ही हटा दिया गया. कुछ आदिवासी हिंदुओं की श्रेणी में आ गए तो कुछ ईसाइयों की और कुछ प्रकृतिवादी. कई आदिवासियों ने ईसाई धर्म अपना लिया, तब भी आरक्षण के लाभ पर फ़र्क पड़ने की आशंका में उन्होंने धर्म की श्रेणी में अपने को ईसाई बताने से परहेज़ किया. यह स्थिति अब भी बनी हुई है.”
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आदिवासी ईसाइयों या मुसलमानों को आरक्षण समेत अन्य सुविधाओं के दायरे से बाहर करने की मांग नई नहीं है. अविभाजित बिहार के लोहरदगा इलाक़े के सांसद कार्तिक उरांव ने इसकी मांग कई बार उठाई.
इसी तरह किसी जाति विशेष को अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति में शामिल करने या उससे बाहर करने, उनमें संशोधन किए जाने के मुद्दे पर लोकुर कमेटी की रिपोर्ट के बाद 21 अगस्त 1967 को लोकसभा में एक विधेयक पेश किया गया.
एक मार्च 1968 को ‘अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) विधेयक’ को लोकसभा और राज्यसभा की एक संयुक्त समिति को विचार-विमर्श के लिए सौंपा गया था.
17 नवंबर 1969 को इस संयुक्त समिति का प्रतिवेदन अनिल कुमार चंदा ने प्रस्तुत किया. कतिपय जातियों और जनजातियों को अनुसूचित जातियों और जनजातियों की सूचियों में जोड़ने या इन सूचियों से बाहर करने की अध्ययन टिप्पणियों की प्रति सभा पटल पर रखी गई.
ठीक एक साल बाद 11 नवंबर 1970 को तत्कालीन विधि तथा समाज कल्याण मंत्री के हनुमन्तय्या ने लोकसभा में इस विधेयक का प्रस्ताव रखा.
हनुमन्तय्या ने अपने प्रस्ताव में कहा कि अनुसूची में 1961 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार लगभग 2125 जातियों तथा उप-जातियों और 622 समुदायों का उल्लेख किया गया है. अतः यह विधेयक जटिल बन गया है क्योंकि किसी भी व्यक्ति के लिए 2700 तथा उससे अधिक समुदायों तथा जातियों के नाम और गुण-अवगुण को स्मरण रखना और संतोषजनक निर्णय देना संभव नहीं है. अतः हमें जातियों को शामिल करने या निकालने के लिए विषय की व्यापकता पर ध्यान देना होगा.
के हनुमन्तय्या ने कहा, “संयुक्त समिति ने यह सिफारिश की है कि जो व्यक्ति अपना धर्म त्याग कर ईसाई धर्म या इस्लाम धर्म अपना लेता है तो उसे अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाना चाहिए.”
उन्होंने कहा, “यह संशोधन स्वीकार करने योग्य नहीं क्योंकि यह ईसाई धर्म तथा इस्लाम धर्म अपनाने वाले व्यक्तियों तथा अन्य धर्म अपनाने वाले व्यक्तियों के बीच भेदभाव करता है.”
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क्य कहता है संविधान?
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के पूर्व महाधिवक्ता और संविधान विशेषज्ञ कनक तिवारी कहते हैं कि डी-लिस्टिंग की मांग पूरी तरह से संविधान विरोधी है.
कनक तिवारी का कहना है कि जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग कॉलम हटाए जाने के बाद मौजूदा केंद्र सरकार की मंशा है कि आदिवासी कोई एक धर्म लिखें और हिंदू धर्म लिखें, जबकि आदिवासियों का बड़ा धड़ा इससे सहमत नहीं हैं.
कनक तिवारी कहते हैं, “आदिवासी किसी भी धर्म में चले जाएं तो भी वे आदिवासी रहेंगे अर्थात उनका आरक्षण उनको उपलब्ध रहेगा जो संविधान के अनुसार है. हां, यदि दलित इस्लाम या ईसाइयत में जाते हैं तो उनको दलित होने का जो आरक्षण का लाभ है, वह ख़त्म हो जाएगा. उसका कारण यह है कि इस्लाम में और ईसाइयत में हिंदू धर्म की तरह दलित, अलग नहीं होते हैं. वह सब के सब या तो ईसाई होते हैं या मुसलमान होते हैं.”
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धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं मिला
सर्व आदिवासी समाज के अरविंद नेताम का कहना है कि हिंदुओं के बीच से ही बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म यहीं पैदा हुआ. उन्हें अलग से चिन्हांकित किया जाता है. आदिवासी तो यहां के मूल निवासी हैं. आदिवासी को तो अलग से चिन्हांकित किया ही जाना चाहिए. उनकी स्वतंत्र पहचान को तो मान्यता देनी ही चाहिए.
नेताम कहते हैं, “आदिवासी हिंदू नहीं हैं, यह बात बहुत साफ़ है. हमारी परंपरा, संस्कृति, मान्यताएं दुनिया में सबसे पुरानी हैं. आदिवासी को धर्म के आधार पर आरक्षण का लाभ नहीं मिला है. कुछ लोग अगर ईसाई या हिंदू धर्म में आस्था रखते हैं तो भी उनके आरक्षण के अधिकार को ख़त्म नहीं किया जा सकता.”
हालांकि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल डी-लिस्टिंग की मांग को भाजपा और संघ की गुमराह करने की चाल बता चुके हैं.
राज्य में डी-लिस्टिंग को लेकर होने वाली रैलियों पर उन्होंने मीडिया से बातचीत करते हुए कहा, “ये भारतीय जनता पार्टी, आरएसएस, बजरंगदल, विश्व हिंदू परिषद, ये सारे लोग मिल कर केवल गुमराह कर रहे हैं. इनके पास कोई काम नहीं है, केवल गुमराह करो, षड्यंत्र करो.”
छत्तीसगढ़ में रामवनगमन पथ, गोबर और गोमूत्र ख़रीदी, रामायण मंडली को प्रोत्साहन, कौशल्या माता मंदिर जैसे कई मुद्दों पर छत्तीसगढ़ की कांग्रेस पार्टी की सरकार आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद से सार्वजनिक प्रशंसा पा चुकी है.
ऐसे में माना जा रहा है कि हिंदुत्व से जुड़े धर्मांतरण और डी-लिस्टिंग ऐसे मुद्दे हैं, जिसे भारतीय जनता पार्टी बस्तर से लेकर सरगुजा तक इस चुनावी साल में बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश करेगी.
सौजन्य : BBC
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