हिंदीभाषियों के लिए संस्कृति, सभ्यता और समाज का दरवाजा है सच्चिदानंद रचनावली
हिंदी की विचार और चिंतन परंपरा में ऐसे लोग कम ही हैं जो समग्रता से समय और समाज को देखने और बताने का काम करते आए हों. जिनके पास विज्ञान की दृष्टि रही हो, समाज को एक चश्मे से नहीं, बल्कि समग्रता से देख सकते हों, दर्शन और व्यवहार को साथ-साथ बरतने की बौद्धिक निपुणता हो और जो विचार और व्यवहार के प्रति दो अलग पहचान लेकर न जीते हों. गंगा के तटीय विस्तार की इस विशाल हिंदीभाषी परंपरा में ऐसा एक नाम है सच्चिदानंद सिन्हा का.
आमतौर पर जब कोई भी प्रकाशक किसी विचारक, साहित्यकार, आलोचक के काम को संकलित करके उसे रचनावली या समग्र की शक्ल देने का बीड़ा उठाता है तो यह मुझे अतिरिक्त सुख देता है. हिंदी के इतिहास में अपने बौद्धिक पुरोधाओं को अप्रकाशित, परित्यक्त और उपेक्षित रखने की कहानियां ज्यादा हैं. इसलिए कोई भी रचनावली के प्रकाशन का निर्णय हिंदी के भाषिक और सामाजिक संदर्भ से एक ऐतिहासिक काम के तौर पर देखा जाना चाहिए.
लेकिन सच्चिदानंद सिन्हा की रचनावली का प्रकाशन इस दिशा में एक कदम आगे की उपलब्धि है. सच्चिदानंद जी का काम बहुत वृहद है. वो कला, साहित्य, इतिहास, संस्कृति, समाज, मानव विकास, विज्ञान, दर्शन और राजनीति को बराबर अधिकार से देखने और समझने का कौशल रखते हैं. इतनी विशद दृष्टि के लोग हिंदी में कम हैं और अगर हैं तो लोगों तक उनकी दृष्टि पहुंचाने के प्रयास कम हैं.
राजकमल प्रकाशन ने पिछले दिनों इस दिशा में यह अहम काम किया है. आठ खंडों की सच्चिदानंद रचनावली का संकलन और संपादन किया है जाने-माने पत्रकार अरविंद मोहन. कहना गलत नहीं होगा कि अरविंद मोहन के अलावा इस काम को और कोई इतना बेहतर ढंग से शायद ही कर पाता. अरविंद मोहन ने इस संपादन में सच्चिदानंद जी के तमाम लेखों, पुस्तकों, भाषणों आदि को एक क्रम और वर्गीकरण देने का प्रयास किया है जो अपने आप में एक बहुत कठिन काम था. संकलन और संपादन की दृष्टि से इस रचनावली को श्रेष्ठ कहना अतिश्योक्ति कतई नहीं है.
अपरिमेय हैं सच्चिदानंद
दरअसल, सच्चिदानंद सिन्हा को पढ़ना या जानना एक आसमान से रूबरू होना है. इस आकाश में कितने ही रंग हैं, कितनी ही छवियां हैं, एक अछिन्न प्रसार में जहां कहीं कुछ भी कही गई बात कमतर या कमज़ोर नहीं लगती. ऐसा लगता है कि वो अभी एक विषय पर कुछ कह रहे हैं और यह उनका सर्वश्रेष्ठ है. फिर हम दूसरे विषय पर उनको पढ़ते हैं तो लगता है कि नहीं, वो तो यहां भी कमाल हैं और उसके बाद के पाठ या विषय पर भी.
सच्चिदानंद जी की एक खूबी यह भी है कि वो किसी एक शैली या विषय परिधि में रहकर ही समय को देखते नहीं हैं. कवि या लेखक अपनी कविता, कहानी को अपनी आवाज बनाते हैं. कोई प्रेम को सिझाता मिलता है तो कोई क्रांति का उन्नायक. कोई मानव संबंधों की त्रिज्या नाप रहा होता है तो कोई प्रकृति के कलरव में रमा नज़र आता है. सच्चिदानंद जी का विषय संसार इससे बहुत वृहद है. इस विस्तार के पीछे एक लंबा अनुभव है और पढ़ने की एक अनवरत परंपरा है.
सच्चिदानंद जी ने अपनी चेतना यात्रा तब शुरू की जब भारत आजाद हो रहा था. राजनीति से लेकर सामाजिक आंदोलनों तक उनकी सक्रियता रही. वो नेहरू से लेकर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और अच्युत पटवर्धन जैसे लोगों को सुनते समझते बड़े हुए. अपने अध्ययन और तर्क के कैनवास को उन्होंने कितने ही दार्शनिकों और आलोचकों, विचारकों की विचार-वर्षा से सींचा. और फिर जीवन के तमाम विषयों को अपनी चेतना से काढ़ने और बताने का काम किया.
रचनावली का संपादन करते हुए अरविंद मोहन कहते हैं, “सच्चिदानंद से बड़ा विद्वान आज शायद ही कोई है. कम से कम समाज विज्ञान के विषयों में. और राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास, समाजशास्त्र, एंथ्रपॉलजी, जैसे समाज विज्ञान के विभिन्न क्षेत्र ही क्यों, दर्शन, कला, संस्कृति, मानव मनोविज्ञान, सौंदर्यशास्त्र, धर्म के क्षेत्रों में भी उनका अध्ययन हैरान करने वाला है……. सच्चिदानंद सिन्हा के लिए विविधता का आदर, केंद्रीकरण का विरोध और टिकाऊ विकास ही बुनियादी मूल्य नहीं हैं. उनके लिए समता, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, मानवाधिकार और जीवन के हर मूल्य का आदर, अहिंसा, सत्य, निरस्त्रीकरण जैसे मूल्य सनातन हैं, बुनियादी हैं. बाद के लेखन में पर्यावरण की चिंता भी बहुत मजबूती से उभरी है.”
मजदूरों के आंदोलन से लेकर श्रम, किसानी, गरीबी, बिहार का विकास, राजनीति के बदलते तरीके, कला इतिहास और हिंदी के समाज के लिए एक वैश्विक दृष्टि भी सच्चिदानंद जी के लेखन के अहम अवयव हैं.
रचनावली के आठ खंड
रचनावली के पहला खंड कला, संस्कृति और समाजवाद पर केंद्रित है. दूसरा खंड स्वतंत्रता, राष्ट्रीयता, किसानों की समस्या और शहरी गरीबी पर आधारित है. तीसरे खंड में गांधी, लोहिया, जेपी और नक्सलवाद से संबंधित लेखों को संकलित किया गया है. चौथा खंड आपातकाल, जनता पार्टी का प्रयोग, पंजाब संकट और राजनीतिक गठबंधनों के प्रयोग पर केंद्रित है.
पांचवां खंड जाति समस्या, जातीयता और सांप्रदायिकता के वृहद विमर्श को उल्लेखित करता है. वहीं छठा खंड नए समाजवाद और पुराने समाजवाद की अंतरदृष्टि को रेखांकित करता है. सातवां खंड उदारीकरण और वैश्वीकरण की टोह लेता है. अंतिम यानी आठवें खंड में आंतरिक उपनिवेशीकरण और बिहार केंद्रित शोषण की अंतर्कथा की चर्चा की गई है.
सच्चिदानंद रचनावली एक बार पढ़ने वाला संकलन मात्र नहीं है. इसे बार-बार पलटने की आवश्यकता पड़ेगी. क्योंकि कालक्रम में जैसे-जैसे घटनाएं अपने नए रूप दिखाएंगी, उनको समझने की दृष्टि के लिए यह रचनावली एक चश्मे की तरह काम करेंगी. इस लिहाज से सच्चिदानंद सिन्हा रचनावली एक संग्रहणीय दस्तावेज है.
इतनी मेहनत से बनी यह रचनावली पलटने पर बस एक छोटी सी कमी नज़र आती है. रचनावली चेतना के सच्चिदानंद से तो बहुत बेहतर ढंग से रूबरू करा रही है लेकिन मूर्तरूप में सच्चिदानंद जी को दिखा पाने में शायद ध्यान नहीं दिया जा सका. अगर सच्चिदानंद जी के जीवन के अलग-अलग समय की कुछ तस्वीरें भी इस रचनावली का हिस्सा बन सकेंगी तो यह एक सुंदर संयोजन बन सकेगा.
सौजन्य : Aajtak
नोट : यह समाचार मूलरूप से aajtak.in में प्रकाशित हुआ है. मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है !