पूर्वांचल में पिछडों का जनाधार बनेगा जीत का आधार

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव निर्णायक मोड़ पर पहुंच गया है. पांच चरणों के चुनाव के बाद अब छठे और सातवें चरण के चुनाव की बारी है. इसमें बेहद महत्वपूर्ण इलाका पूर्वांचल आता है. पूर्वांचल सभी राजनीतिक दलों के लिए हमेशा से चुनौती भरा रहा है. छठे और सातवें चरण में पूर्वांचल की ही ज्यादातर सीटें हैं. जिन पर पार्टियों की उम्मीद टिकी हुई है. पूर्वांचल के तमाम जिले ऐसे हैं जहां जातियों पर आधारित राजनीतिक समीकरण आने वाले दिनों में कैसे बैठेंगे यह कहना अभी मुश्किल है. वजह यह भी है कि पिछले कुछ सालों में पूर्वांचल की राजनीति में विकास और सामाजिक ढांचे के लिहाज से जिस तरह परिवर्तन हुआ है उसने कुछ भी तय करना मुश्किल कर दिया है. हाल के दिनों में राजनीतिक उठापटक के बीच जिस तरह के समीकरण दलों के बीच बने उसने भी मतदाताओं की मुट्ठी एक तरह से बंद कर दी है. मतदाता किस करवट बैठेगा इसके बारे में समझ पाना बेहद मुश्किल है.
पूर्वांचल में दलित-पिछडे तय करेंगे किस्मत
हालांकि इन दोनों चरणों के चुनाव में पूर्वांचल की सीटों पर दलित और ओबीसी मतदाता ही तय करेगा कि आखिरकार पूर्वांचल में किसकी धाक जमी है. राजनीति और सीटों के समीकरण के लिहाज से पूर्वांचल कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है पूर्वांचल के लिए एक तरफ उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने न केवल विकास और खजाने के दरवाजे खोल दिए, बल्कि चुनाव के बहुत पहले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ और अमित शाह जैसे दिग्गज नेताओं ने वहां खूब रैलियां और सभाएं की.
समाजवादी पार्टी के लिये ओमप्रकाश राजभर तो बीजेपी के लिये अनुप्रिया पटेल की साख का सवाल
अब चुनाव के वक्त पूरे पूर्वांचल इलाके में पिछड़ी जाति के कई दिग्गज नेताओं का इम्तिहान होना है. एक तरफ बीजेपी का दामन छोड़कर समाजवादी पार्टी के साइकिल पर सवार हुए ओमप्रकाश राजभर की परीक्षा होनी है तो दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की तरफ से केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल और संजय निषाद यह साबित करने की कोशिश करेंगे कि आखिरकार दलितों का मसीहा कौन है. वैसे तो उत्तर प्रदेश में सारी राजनीति ओबीसी और दलित वोटरों के नाम पर ही होती है, लेकिन पूर्वांचल के इलाके में उनकी तादाद ज्यादा है. उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित वोटर निर्णायक साबित होता है, यह बात पिछले कई चुनावों में साबित भी हुई है. इसी का नतीजा है साल 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी प्रचंड वोटों के साथ सत्ता में आई थी. इसीलिए सरकार बनने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने कई ऐसी योजनाएं चलाई जिससे पूर्वांचल में पिछड़ों और दलितों के लिए कई तरह की सुविधाएं और संभावनाऐं पैदा हो सकें.
छठे और सातवें चरण के लिए 3 मार्च और 7 मार्च को चुनाव मतदान होने हैं जिसमें दोनों चरणों को मिलाकर 19 जिलों की 111 विधानसभा सीटें शामिल हैं. एक-दो को छोड़कर ज्यादा सीटें पूर्वांचल के इलाके में ही आती हैं. इसीलिए सभी राजनीतिक दलों में इस बात पर जोर दिया गया है कि इन दो फेज के चुनाव में ऐसे उम्मीदवारों और प्रचार के लिए नेताओं को लगाया जाए जिनका आधार ओबीसी जाति और दलित पर अच्छा हो.
पूर्वांचल की जीत के बडे होंगे मायनें
साल 2017 के चुनाव में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर ने इस इलाके में 4 सीटें जीती थी. जिसका नतीजा यह हुआ कि न सिर्फ उन्हें बीजेपी में कैबिनेट मंत्री का पद मिला बल्कि काफी लंबे वक्त तक विरोध में आवाज उछाते रहने का बाद भी राजभर सरकार में बने रहे. अब बीजेपी का दामन छोड़ने के बाद अब समाजवादी पार्टी के खेमे में ओमप्रकाश राजभर बेशक बड़ा दम भर रहे हैं. लेकन इस चुनाव में उन्हे अपना दावा साबित करना होगा. उनकी पार्टी ने पूर्वांचल की सीटों समेत 18 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं. यहां पर चुनावी वैतरणी पार करने के लिए बीजेपी की तरफ से निषाद पार्टी के संजय निषाद और अपना दल उनके मुकाबले में खड़े हैं. ऐसे में उनके लिए अपनी काबिलियत साबित करना इतना आसान नहीं होगा.
संजय निषाद को साबित करना होगा पिछडों में अपना जनाधार
बीजेपी के खेमे में आए संजय निषाद के लिए भी परीक्षा पूर्वांचल में ही है. उनकी पार्टी पहली बार भारतीय जनता पार्टी के साथ चुनाव में उतरी है. 16 सीटों पर अपने उम्मीदवार निषाद पार्टी ने उतारे हैं. पिछड़ों और दलितों पर अपने प्रभाव का दावा करने वाले संजय निषाद के लिए ये बड़ी जिम्मेदारी होगी कि इन 16 सीटों में से ज्यादा से ज्यादा सीटें पा सके ताकि न सिर्फ वो अपना पूर्वांचल में वर्चस्व साबित कर सकें, बल्कि अगर सरकार बनने की नौबत आती है तो बीजेपी से वह ठीक मोलभाव कर सके.
चुनौती अनुप्रिया पटेल के सामने भी हैं क्योंकि पहली बात तो यह कि वह जिस समुदाय से आती हैं उसमें ही दो फाड़ हैं. उनकी मां कृष्णा पटेल समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही हैं, और उनकी बहन पल्लवी पटेल सिराथू से भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के सामने मैदान में खडी हैं. अनुप्रिया पटेल की असली चुनौती छठे और सातवें चरण के साथ उत्तर प्रदेश के उन जिलों में हैं जहां पर कुर्मी समुदाय का ज्यादा दबदबा है. 2017 के चुनाव में अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल (एस) 11 सीटों पर चुनाव लड़ चुकी है, खास बात यह है कि उसने से 9 प्रत्याशी जीते भी थे. अनुप्रिया की पार्टी को अच्छा खासा वोट प्रतिशत इन सीटों पर मिला था, लेकिन इस बार उन्होंने 17 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं इसलिए इस बात का भी दबाव है कि वह पहले से ज्यादा सीटें जीते ताकि उनका केंद्र में और उनकी पार्टी का प्रदेश में प्रभाव बढ़ सके.
पूर्वांचल का सिकंदर होगा पिछडों का असली नेता
सियासी समीकरणों और पूर्वांचल के हालातों को देखकर एक बात साफ है कि साल 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद नतीजे जो भी आएंगे वह पूर्वांचल में या तो किसी एक पिछड़े नेता को बड़ा कद देंगे या फिर पिछले चुनाव के नतीजों से उलट इन नेताओं को अपनी काबिलियत साबित करने के और मौके तलाशने होंगे. वजह ये भी है कि जिस तरह राजनीतिक दलों ने अपने पिछड़े नेताओं के जरिए पूर्वांचल में घेराबंदी की है उसमेंकिसी एक की हार में ही दूसरे की बडी जीत है. ये जात भी सिर्फ सीटों की जीत नहीं बल्कि अपने समाज में रुतबे, दबदबे और वर्चस्व की जीत होगी.
सौजन्य : News18
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