विचार : गटर में न खत्म हो जीने का हक
सीवर या मेन होल कहते, हमारे मन में किसी शहर में खुले या ढके, बजबजाते गंदे नाले का रुका और बदूबदार दृश्य ही नहीं उभरता। उनकी सफाई में नाक तक डूबा आदमी भी जिंदा भूत हुआ नजर आता है। ये दोनों एक दूसरे से चस्पा हैं-एक सिक्के के दो पहलू की तरह।
बिना किसी सुरक्षाकीट के नंगे बदन उतरा सफाईकर्मी वहां निकलने वाली जहरीली गैस से कुछ मिनटों में सचमुच ‘भूत’ हो जाता है। और सिस्टम किनारे पर बैठा बिना किसी फेरबदल के वर्तमान बना रहता है-तत्पर मानवीय दरकारों और इनकी जरूरतों से अलहदा। इसलिए कि सफाईकर्मी के जीने और समानता के अधिकार की रक्षा की जवाबदेही किसी की नहीं मानी जाती। जब वह ‘भूत’ हो ही गया है तो उसका पता-ठिकाना या रिकॉर्ड कहां और क्यों रखा जाए।
देश के 99 फीसद मामलों में अब तक यही होता रहा है, आगे भी चलता रहता। अगर संसद में सवाल नहीं पूछे जाते और सर्वोच्च अदालत का सीधे दखल नहीं होता। यहां मेरा सवाल देश के नौकरशाहों, सॉरी लोकसेवकों से है कि उनकी डिक्शनरी से लोक क्यों गायब हो जाता है? और इसकी याद दिलाने के लिए अदालती डंडा या किसी जनआंदोलन की जरूरत क्यों पड़ती है? सीवर में उतर कर जान गंवाने वालों और उनके बाद अनाथ-बेघरबार रह गए बेबस परिजनों का ख्याल उन्हें द्रवित क्यों नहीं करता? जबकि जिंदगियां बचाने के लिए पर्याप्त बजटीय प्रावधान किए गए हैं पर उसमें इस पर अमल करने की वह तत्परता और संवेदना नहीं है, जिनसे व्यवस्था संभल जाती है। प्रशासन को अड़ियल नहीं लचीला और मानवीय होना चाहिए।
इसी प्रशासनिक असंवेदनशीलता की वजह से न्यायपालिका को कई बार दखल देना पड़ा है जबकि यह मसला पूरी तरह प्रशासनिक है। इसे टालते जाने से ही अदालतों पर निर्देश देने का बोझ खामख्वाह बढ़ गया है। आप अदालतों में दायर मुकदमों की तादाद पर गौर करें तो 85 फीसद ऐसे मामले हैं, जो सीधे-सीधे नौकरशाहों या प्रशासन के दायित्व न निभा सकने या उनकी कोताही के चलते अंबार होते गए हैं। सीवर में मौत मामले में समय पर उचित कदम इस ख्याल से नहीं उठाया जाता रहा कि जो आदमी गटर में नंगे ही गहरे उतर सकता है, वह गटर में मर-खप जाने के लायक ही है? सफाईकर्मी इसे औपनिवेशिक काल से चले आ रहे सामंतवादी और दलित विरोधी दृष्टिकोण कहते हैं। इसमें कुछ सच्चाई भी है। देश में कुल 58,098 लोग मैला साफ करने के काम में लगे हैं जिनमें से 97 फीसद यानी 43,797 लोग दलित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। इसके अलावा, 421 लोग आदिवासी, 431 लोग ओबीसी हैं जबकि 351 लोग अन्य वर्ग के हैं। ऐसा खुद सरकार ने संसद में कहा था। पर वे जन्मना मनुष्य हैं। उन्हें भी जीने का एवं समानता का हक है।
इस दिशा में, सर्वोच्च न्यायालय का निरंतरता में दिए जा रहे निर्देश मानवीय हैं। न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट्ट की अगुवाई वाली खंडपीठ ने सीवर सफाई के दौरान होने वाली हरेक मौत के मामले में सरकारी प्राधिकरण को जिम्मेदार ठहराया और 30 लाख मुआवजा का निर्देश दिया। इसके पहले प्रशासन इन मौतों का ठीकरा ठेकेदारों पर फोड़कर निश्चिंत हो जाता था-गैर सरकारी मामलों में अब भी यही हो रहा है। लेकिन अब उनकी मौत राज्य की जवाबदेही है। सफाईकर्मी की मांग ऐसी मौतों को हत्या मनवाने की रही है। शुक्रवार को खंडपीठ ने कहा कि सीवर सफाई के दौरान यदि कोई सफाईकर्मी स्थाई रूप से दिव्यांगता का शिकार हो जाता है, तो उसे बतौर मुआवजा 20 लाख रु पये दिए जाएं।
हालांकि एक अन्य फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ही दिव्यांगता के मामले में 10 रु पये मुआवजे की बात कही है। ताजा मामले में पीठ ने यह भी कहा कि इस तरह की घटना न हो, इसे सरकारी अथॉरिटी सुनिश्चित करे और ऐसे मामलों की निगरानी से हाईकोर्ट को नहीं रोका जा सकता है। इससे दो बात निकलती है कि नौकरशाहों के कामकाज पर न्यायालय के विश्वास को नहीं है और कि उन पर नजर रहेगी। इसके पहले, सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में एक ऐतिहासिक फैसले में हाथ से (मैन्युल तरीके से) कचरे और गंदगी की सफाई रोकने के लिए तमाम निर्देश जारी किए थे। साथ ही कहा था कि सीवर की खतरनाक सफाई के लिए किसी मजदूर को न लगाया जाए। बिना सेफ्टी के सीवर लाइन में मजदूर को न उतारा जाए। इसका उल्लंघन करने वालों को सख्त सजा दी जाए।
सफाई कर्मचारी आंदोलन की इस मामले में दायर एक जनिहत याचिका में हाथ से कचरा हटाने और खतरनाक सीवर लाइन में बिना सुरक्षा कीट्स के मजदूरों के उतरने आदि को लेकर कानून का पालन करने का निर्देश देने की मांग की गई थी। इसी दौरान केंद्र सरकार ने प्रोहिबिशन ऑफ इंप्लायमेंट एस मैन्युअल स्कैविंजर एंड देयर रिहेबिलेशन एक्ट 2013 बनाया था। इसके पहले 1993 में मैनुअल स्केवेंजिग को खत्म करने और इसे प्रतिबंधित करने वाला पहला कानून बना था। दूसरा कानून 2013 में बना था। इसके तहत किसी भी व्यक्ति को सीवर में भेजना पूरी तरह से प्रतिबंधित है।
तभी सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस पी. सथासिवम की बेंच ने खतरनाक सीवर लाइन में काम करने के लिए मजदूर को नहीं लगाने, हाथ से कचरे और गंदगी की सफाई करने वालों की पहचान सुनिश्चित करने, उनकी सूची बनाने, (यह पहले नहीं होता था, सरकार ने और सफाईकर्मियों के संगठन के पास इन अभागे मजदूरों का पता-ठिकाना नहीं था)। इसके बाद से ही सरकार की ओर से आंकड़े जुटाने की कवायद शुरू हुई पर आज भी सरकार के पास कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं है। न्यायालय ने उनके बच्चों को स्कॉलरशिप की व्यवस्था करने, उनके प्लाट और घर बनाने में सहयोग देने तथा परिवार के किसी सक्षम व्यक्ति को प्रशिक्षण देने का निर्देश दिया था ताकि वे अपना गुजारा चला सकें।
चीफ जस्टिस की बेंच ने इस मामले में जिलाधिकारी को भी निर्देशित किया था कि वे हाथ से काम करने वाले सफाईकर्मियों के पुनर्वास सुनिश्चित करें। पर दुखद यह है कि हर बजट में इसके लिए आवंटित राशि में 70 फीसद तक कटौती होती गई है। न्यायालय ने यह व्यवस्था भी दी कि अगर कोई मजदूर बिना सेफ्टी के सीवर लाइन में जाता है तो इसे क्राइम माना जाए। कोई अथॉरिटी फिर भी इसका उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ क्रिमिनल केस दर्ज किया जाए, जिसके अलग-अलग मामले में एक साल से 5 साल तक सजा का प्रावधान है।
इसके बावजूद सीवरकर्मी की मौत होती रही। लोकसभा में 2022 में सरकार ने बताया था कि पिछले पांच वर्षो में भारत में सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान 347 लोगों की मौत हुई, जिनमें से सबसे अधिक 40 फीसद मौतें उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और दिल्ली में हुई। हालांकि पत्रकार एस आनंद के लेख ‘डेथ इन दि ड्रेन्स’ के मुताबिक,‘भारत में करीब 22,327 महिला और पुरुषों की हर साल सीवेज से जुड़ी किसी भी सफाई के दौरान मौत होती है।’ जबकि भारत में सीवर और सेप्टिक टैंक की हाथ से सफाई प्रतिबंधित है। अगर किसी खास परिस्थिति में सफाईकर्मी को सीवर के अंदर भेजा जाता है तो इसके लिए कई तरह के नियमों का पालन करना होता है। इसकी इजाजत इंजीनियर को देनी चाहिए और पास में ही एंबुलेंस की व्यवस्था भी रहे ताकि आपातकाल में सफाईकर्मी को अस्पताल ले जाया जा सके। इसके अलावा दिशा-निर्देश कहते हैं कि सफाईकर्मी की सुरक्षा के लिए ऑक्सीजन मास्क, रबड़ के जूते, सेफ्टी बेल्ट, रबड़ के दस्ताने, टॉर्च आदि होने चाहिए। कोर्ट की सख्ती के बाद सरकारी एजेंसियों ने मशीनें भी खरीदी हैं पर वे जरूरत से कम हैं और वे तंग गलियों में काम नहीं कर पा रही हैं। फिर भी वे इंसानी जान तो नहीं ले रही हैं। यही क्या कम है?
सौजन्य : Samay live
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