दलितों-आदिवासियों को सबल बनाना वक्त की जरूरत
21 अगस्त को पूरे देश में दलित संगठनों ने भारत बंद का आवाहन किया है। यह विरोध प्रदर्शन सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1 अगस्त को अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति में उप वर्गीकरण करने के राज्य सरकारों को दिए अधिकार संबंधी आदेश की पृष्ठभूमि में हो रहा है। दलित संगठनों का कहना है कि दलितों में उप वर्गीकरण और क्रिमी लेयर का प्रस्ताव उनके आरक्षण को भविष्य में खत्म कर देगा।
दिनकर कपूर
वैसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश में क्रीमी लेयर की बात नहीं है यह 7 सदस्य खंडपीठ के न्यायाधीश बी. आर. गवई का मत था जिसका कई जजों ने समर्थन किया है। लेकिन यह जजमेंट के ऑपरेटिव पार्ट में शामिल नहीं किया गया है। जहां तक उप वर्गीकरण की बात है सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जातीय समूहों के पिछड़ेपन का डाटा उपलब्ध होने पर ही इसे लागू किया जाना चाहिए। इसने नौकरी के कालम को भी शामिल करते हुए सामाजिक आर्थिक जातीय जनगणना कराने की मांग को बल प्रदान किया है। यदि सुप्रीम कोर्ट सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना का भी आदेश देता और उसके आधार पर उप वर्गीकरण की बात करता तो शायद ज्यादा बेहतर होता।
बहरहाल अभी स्थिति यह है कि देश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के तमाम पद खाली रह जा रहे हैं। विशेष कर उच्च श्रेणी की नौकरियों में तो यह स्थिति और भी भयावह है। दरअसल यदि हम आंकड़ों की रोशनी देखें तो हम यह पाएंगे कि देश में 4.42 करोड़ परिवार अनुसूचित जाति के हैं। जिसमें से 3.95 दलित परिवारों के पास नौकरी है जिसमें से 0.93 प्रतिशत परिवार राजकीय नौकरी में है और 2.47 प्रतिशत परिवार निजी क्षेत्र का रोजगार करते हैं। 83 प्रतिशत दलित परिवार 5000 से कम आमदनी पर अपनी आजीविका को चलते हैं 11.74 प्रतिशत परिवार 5000 से 10000 के बीच में अपनी जीविका को चलते हैं 4.67 प्रतिशत परिवार 10000 से ज्यादा कमाते हैं और 3.50 प्रतिशत परिवार ही 50000 से ज्यादा की आमदनी पर अपनी जीविका चलाते हैं। यदि हम देखें तो दलित परिवारों में 42 प्रतिशत भूमिहीन और आदिवासियों में 35.30 प्रतिशत भूमिहीन परिवार हैं। 94 प्रतिशत दलित और 92 प्रतिशत आदिवासी मजदूरी व अन्य देशों से अपनी जीविका चलाते हैं। दलित परिवारों के पास 18.5 प्रतिशत असिंचित, 17.41 प्रतिशत सिंचित और 6.98 प्रतिशत अन्य भूमि है। दलितों में 23 प्रतिशत अच्छे मकान में, 2 प्रतिशत रहने योग्य मकान में, 12 प्रतिशत जीर्ण शीर्ण मकान में और 24 प्रतिशत घास फूस, पॉलीथिन और मिट्टी के मकान में रहते हैं।
अगर हम अनुसूचित जाति और जनजाति के बजट पर गौर करें तो वर्ष 2024-25 का केंद्रीय बजट 48 लाख 20 हजार 512 करोड़ रुपए का है। जिसमें से 165493 करोड़ रुपया यानी 3.43 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लिए और 132214 करोड़ रुपए यानी 2.74 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के विकास के लिए आवंटित किया गया है। अनुसूचित जाति और जनजाति के कल्याण के नाम पर जो योजनाएं लागू की जा रही है उसमें भी सरकार कारपोरेट जगत का ही हित ही पूरा कर रही है। अनुसूचित जाति व जनजाति के कल्याण के लिए बनाई गई योजनाओं में दूरसंचार, सेमीकंडक्टर, लार्ज स्केल इंडस्ट्रीज, परिवहन उद्योग, उर्वरक आयात, रासायनिक उत्पादन आदि को भी घुसा दिया गया है।
यदि आप देखे तो वर्ष 2023-24 और 2024-25 के वित्तीय वर्षों में सफाई कर्मियों के स्वरोजगार और पुनर्वास के लिए मोदी सरकार ने कोई बजट आवंटित नहीं किया। 2024-25 के लिए राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त और विकास निगम जो भारत में सफाई कर्मचारियों को ऋण प्रदान करने और वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए जिम्मेदार है, को केवल 1 लाख रुपये की अत्यंत कम राशि आवंटित की गई है। समाज की सबसे कमजोर इन जातियों के वेलफेयर के लिए 2022-23 में 70 करोड़ रुपए का बजट था जिसमें केवल 11 करोड़ रुपए खर्च हुए और लगभग 58.5 करोड़ रुपए लैप्स हो गये।
राष्ट्रीय मैकेनाइज्ड सफाई कार्यक्रम जैसी योजनाओं को 236.99 करोड़ का विशाल बजट दिया गया है जो केवल कॉरपोरेट को पैसा देना है। एससी व एसटी कल्याण निधि से 2140 करोड रुपए दूरसंचार के बुनियादी ढांचे के निर्माण और वृद्धि के लिए सेवा प्रदाताओं को मुआवजा देने के लिए आवंटित किया गया। एससी व एसटी निधियां से 1035 करोड़ सेमीकंडक्टर और प्रदर्शन निर्माण के लिए लगाए गए। यूरिया और अन्य उर्वरक फॉस्फोरस पोटेशियम के आयात और स्वदेशी निर्माण के लिए सब्सिडी जैसी योजनाओं के लिए 22052.5 करोड़ रुपया आयातकर्ताओं और निर्माताओं को दिया गया जिसका एससी-एसटी विकास से कोई संबंध नहीं है।
यदि हम आदिवासियों की हालात देखें और भी ज्यादा बुरी है। आदिवासी देश की जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है इनकी आबादी 10 करोड़ के लगभग है। इनकी 52 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे रहती है। 54 प्रतिशत आबादी के पास संचार और परिवहन की सुविधा नहीं है। आदिवासियों में 42.02 प्रतिशत कामगार है जिसमें 54.50 प्रतिशत किसान और 32.60 प्रतिशत खेत मजदूर है। यानी करीब 87 प्रतिशत आबादी प्राथमिक क्षेत्र में ही काम करती है। आदिवासियों में साक्षरता दर 58.96 प्रतिशत है जिसमें 68.53 प्रतिशत पुरुष और 49.35 प्रतिशत महिलाएं है। यदि इसका वर्गीकरण किया जाए तो आदिवासी 35.8 प्रतिशत साक्षर, कक्षा 5 से कम 26.4 प्रतिशत, कक्षा 8 से कम 18.3 प्रतिशत, कक्षा 10 से कम 11.1 प्रतिशत, कक्षा 12 से कम 5.7 प्रतिशत डिप्लोमा व सार्टिफिकेट कोर्स में 0.6 प्रतिशत, स्नातक 2.2 प्रतिशत हैं। सोशल एजुकेशन की रिपोर्ट के अनुसार कक्षा 10 के बाद करीब 70.6 प्रतिशत आदिवासी लड़के और 71.3 प्रतिशत आदिवासी लड़कियां पढ़ाई छोड़ देती हैं।
अभी उत्तर प्रदेश में 69000 शिक्षक भर्ती का मामला भी काफी चर्चा में है। योगी सरकार द्वारा आरक्षण नियमों का पालन न करने के कारण हाईकोर्ट ने 13 अगस्त को पूरी भर्ती को ही निरस्त कर दिया है और सरकार से नई सूची बनाने के लिए कहा है। इस भर्ती में अनुसूचित जनजाति की 1380 सीटों में से 1133 सीटें खाली रह गई। इस बात का उल्लेख हाईकोर्ट के निर्णय में भी है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार जनजाति के इन खाली पदों को अनुसूचित जाति से भरा गया। उत्तर प्रदेश में 0.6 प्रतिशत करीब 17 लाख के आसपास अनुसूचित जनजाति के लोग रहते है। इनमें गोंड़, खरवार, चेरो, बैगा, पनिका, भुइंया, अगरिया, थारू, भोक्सा, भोटिया, सहरिया आदि जातियां आती है। जिन्हें उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला हुआ है।
मुख्यतः प्रदेश में सबसे ज्यादा अनुसूचित जनजाति के लोग सोनभद्र जिले में रहते हैं। वहां की हालत यह है कि आदिवासी बच्चों के पढ़ने के लिए पर्याप्त सरकारी डिग्री और इंटर कॉलेज नहीं है। पूरे जनपद में मात्र तीन सरकारी डिग्री कालेज है। जिसमें से एक महिला डिग्री कालेज है। परिणामतः समाज में योगदान देने और सरकारी नौकरी की चाह रखने के बावजूद आदिवासी बच्चों को शिक्षा न मिलने से उनके सपने टूट जाते हैं। युवा मंच द्वारा से जुड़ी लड़कियों द्वारा आदिवासी बाहुल्य दुद्धी तहसील में आदिवासी लड़कियों की निशुल्क उच्च शिक्षा के लिए सरकारी डिग्री कॉलेज बनाने की मांग आदिवासी राष्ट्रपति से लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक की गई। लेकिन सरकार के कान में जूं नहीं रेंग रही है।
हालत इतनी बुरी है कि बभनी ब्लाक के पोखरा में बने हुए सरकारी डिग्री कालेज तक को चालू नहीं कराया जा रहा है। इस क्षेत्र में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का भी बुरा हाल है। ज्यादातर विद्यालय शिक्षामित्रों के बूते चलाए जा रहे है जो शिक्षा अधिकार कानून 2009 का सरासर उल्लंधन है। इसलिए सबसे पहली जरूरत तो यह है कि सरकार आदिवासी बच्चों की प्राथमिक से लेकर डिग्री तक निशुल्क और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी करें ताकि वह सरकारी नौकरी लायक अपने को बना सकें।
इसी के साथ आदिवासी बाहुल्य सोनभद्र के दुद्धी में लोगों की आजीविका का भी बेहद संकट बना हुआ है। हल बैल से जारी खेती अनुत्पादक है और उससे परिवार की जीविका चलाना बेहद मुश्किल है। आजीविका का यह संकट लोगों को अपने बच्चों की शिक्षा दिलाने में भी महत्वपूर्ण अवरोध का काम करता है। यहां बड़े पैमाने पर आजीविका के अभाव में लोगों का पलायन हो रहा है, यहां तक कि नौजवान लड़किया भी पलायन कर रही है। न सिर्फ मजदूर पलायन कर रहे हैं बल्कि पूंजी का भी पलायन हो रहा है।
2021 के सरकारी आंकड़े के अनुसार यहां के लोगों के बैंकों में जमा 9623 करोड़ रुपये के बदले महज 3034 करोड़ रुपये का लोन यहां के लोगों को मिला यानी 69 प्रतिशत पूंजी का पलायन हो गया। ऐसे में यहां महिला स्वयं सहायता समूह और नौजवानों को बिना ब्याज ऋण देकर उन्हें स्वरोजगार के लिए प्रेरित किया जाए ताकि वह आर्थिक रूप से समृद्ध हो और अपने बच्चों की शिक्षा पर समुचित धन खर्च कर सकें। आश्चर्य इस बात का है कि जो सामाजिक न्याय की ताकते हैं और जिन्होंने प्रदेश में सरकारें भी चलाई उन्होंने आदिवासियों के इस पिछड़ेपन पर कुछ नहीं किया।
इसलिए वक्त की जरूरत है कि दलित और आदिवासियों को सबल बनाया जाए। एससी व एसटी सब प्लान पर बजट बढ़ाया जाए, सरकारी नौकरी में उनकी भागेदारी के लिए नाट फार सुटेबल के प्रावधान को समाप्त किया जाए और उनके पदों को किसी भी दशा में दूसरे वर्गो द्वारा न भरा जाए, मीडिया, न्यायपालिका और निजी क्षेत्र में आरक्षण दिया जाए, देश में खाली पड़े सरकारी पदों को तत्काल भरा जाए। आशा है सामाजिक न्याय की ताकतें दलितों आदिवासियों के इन जरूरी सवालों पर भी ध्यान देंगी।
(दिनकर कपूर ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के प्रदेश महामंत्री हैं)
साभार : जन चौक
नोट: यह समाचार मूल रूप से janchauk.com पर प्रकाशित हुआ है और इसका उपयोग केवल गैर-लाभकारी/गैर-वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए किया गया है, विशेष रूप से मानवाधिकारों के लिए l