100% VVPAT गिनती को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने दिया ग़लत फ़ैसला
नई दिल्ली। EVM से जुड़े VVPAT की पर्चियों की 100% गिनती करवाने के लिए न्यायिक आदेश देने की मांग करने वाली याचिकाओं को नामंज़ूर करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की खंडपीठ ने सही फ़ैसला नहीं सुनाया है। इस बात की तह में जाने से पहले ये साफ़ करना ज़रूरी है कि बेशक़, अदालती फ़ैसले का आदर करना देश के हरेक नागरिक और संस्था के लिए अनिवार्य तथा बाध्यकारी है, लेकिन किसी भी अदालत का फ़ैसला आलोचना या समीक्षा से परे नहीं होता।
क्या होती है अदालत की अवमानना?
किसी भी अदालती फ़ैसले को सही या ग़लत कहना अवमानना नहीं है। अवमानना सिर्फ़ तब होती है जब या तो फ़ैसले को लागू नहीं किया जाए या फिर फ़ैसले देने वाले जज की व्यक्तिगत निष्ठा पर बेबुनियाद आक्षेप किया जाए। ऐसा नहीं है कि जज की निष्ठा पर कभी सवाल नहीं उठाया जा सकता। बिल्कुल, उठाया जा सकता है। बशर्ते, आरोप पुख़्ता हों और उसके जांच में सही पाये जाने का मज़बूत आधार हो। इसके बाद ही जज के ख़िलाफ़ महाभियोग (impeachment) चल सकता है।
महाभियोग की प्रक्रिया बेहद जटिल है ताकि संवैधानिक पदों पर तैनात लोग सरकारी नियंत्रण और नौकरी गंवाने के भय से मुक्त होकर अपना दायित्व निभा सकें। अदालत की अवमानना के मामले में कार्रवाई का अधिकार सभी तरह के जजों के होता है। लेकिन महाभियोग का सुरक्षा कवच संविधान ने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के अलावा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) और चुनाव आयुक्त जैसे शीर्ष संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को ही दिया है।
ग़लत फ़ैसले की आलोचना
अदालतों में ग़लत फ़ैसला सुनाने वाले जज को कभी ग़लत नहीं माना जाता क्योंकि जज भी आख़िर एक इंसान है और ग़लती किसी भी इंसान से हो सकती है। ग़लती की सम्भावना है, इसीलिए किसी भी फ़ैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती दी जाती है, जो क़ानूनी गुण-दोष के आधार पर निचली अदालत के फ़ैसले की समीक्षा करती है। बहरहाल, ग़लत फ़ैसला तो ग़लत ही कहलाएगा। लेकिन इसे परखेगी भी तो सिर्फ़ अदालत ही। ग़लती अनायास हो तो कोई बात नहीं, लेकिन दुराग्रहपूर्ण हो तो अपराध है। जजों को भी अपराध करने की छूट नहीं है।
VVPAT पर शक़ के बादल
सवाल ये है कि 100% VVPAT पर्चियों की गिनती करने वाली याचिकाओं का ख़ारिज़ किया जाना आख़िर सही क्यों नहीं है? दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने ही जिन-जिन वजहों से 2009 में चुनाव आयोग को VVPAT को अपनाने का आदेश दिया था, वो सभी वजहें अब भी मौजूद हैं। उस फ़ैसले का अधूरापन अब भी क़ायम है। तब 21 राजनीतिक दलों ने कहा था कि उन्हें EVM की शुद्धता पर सन्देह है। अब तक तो उन्होंने कहा नहीं कि उनका सन्देह मिट चुका है। वो तो बारम्बार सन्देह को दोहराते ही आये हैं।
EVM को लेकर पनपे सन्देह को मिटाने के लिए ही तो VVPAT का जन्म हुआ था। तो फिर सुप्रीम कोर्ट को ये क्यों नहीं दिखा कि चुनाव आयोग सन्देहों को मिटाने में इच्छुक नहीं है। वो अदालत ही क्या जो वादी और प्रतिवादी के पैतरों तथा इन्साफ़ की दरकार को समझ ना सके! चुनाव आयोग का संवैधानिक दायित्व है कि वो निष्कलंक चुनाव करवाए। इसीलिए उसे अनुच्छेद 324 से असीमित अधिकार मिले हैं।
न्यायिक सिद्धान्त की अवहेलना
न्याय का बुनियादी सिद्धान्त है कि उसे न सिर्फ़ होना चाहिए बल्कि होते हुए भी दिखना चाहिए। यानी, “Justice should not only be done, but should manifestly and undoubtedly be seen to be done”. ज़ाहिर है कि EVM को लेकर लगे सन्देहों को मिटाने के दायित्व से चुनाव आयोग भला बच कैसे सकता है? क्या उसे खोखले बहाने के आधार पर VVPAT की पर्चियों की 100% गिनती करने से ज़िम्मेदारी से कन्नी काटने की इजाज़त दी जा सकती है?
चुनाव आयोग को उसके बुनियादी दायित्व से बरी करने का सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला कतई सही है। उसने चुनाव आयोग की बहानेबाज़ी को क़ानून की कसौटी पर परखने का दायित्व सही ढंग से नहीं निभाया। वर्ना, सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ करने वाला क्यों नहीं है? वो इस तथ्य को भला कैसे नज़रअन्दाज़ कर सकता है कि VVPAT को अपनाते वक़्त चुनाव आयोग की मांग को देखते हुए ही जनप्रतिनिधित्व क़ानून, 1951 में संशोधन हुआ कि EVM में किसी भी गड़बड़ी की दशा में VVPAT की पर्चियों की गिनती को ही प्रमाणिक और अन्तिम माना जाएगा। तो फिर इसकी शत-प्रतिशत गिनती से परहेज़ क्यों?
EVM का ‘सिगमा’ स्टैंडर्ड
सभी जानते हैं कि EVM एक मशीन है। मशीन में ख़राबी आ सकती है। कोई इसे नकार नहीं सकता। तभी तो मतदान के दिन EVM में ख़राबी या गड़बड़ी की सैकड़ों खबरें आती हैं। लिहाज़ा, VVPAT की पर्चियों की 100% गिनती की ज़रूरत को ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता। ज़रा सोचिए कि क्या कोई जानता है कि पेटेंट, एगमार्क, ISI, ISO, BEE Star Rating, FSSAI सर्टिफिकेट आदि की तरह EVM की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए कौन सा मानक निर्धारित है? जवाब है – कोई नहीं।
दुनिया में किसी भी मशीन या कल-पुर्जे की गुणवत्ता का स्तर तय करने के लिए भी मानक मौजूद है। इसकी गणना जिस सांख्यिकीय फॉर्मूले से होती है उसे ‘सिगमा स्टैंडर्ड’ कहते हैं। इस सांख्यिकीय गणना (statistical calculation) की सर्वोच्च श्रेणी ‘सिगमा-6’ है। इसमें प्रति 10 लाख मशीनों में से सिर्फ़ 3.4 मशीनों में ही ख़राबी की गुंज़ाइश हो सकती है। ऐसी शुद्धता स्तर को 99.9997% माना गया है। इस मानक का निर्धारण वाशिंगटन स्थित काउन्सिल फॉर सिक्स सिगमा सर्टिफिकेशन करता है।
EVM जैसी भारतीय मशीन के लिए ‘सिगमा-6’ स्टैंडर्ड की तो कल्पना करना भी बेमानी है। सच तो ये है कि चुनाव आयोग का EVM, शायद ही ‘सिगमा-3’ स्टैंडर्ड भी पार कर सके जिसमें प्रति 10 लाख में से 66,807 मशीनों में ख़राबी पायी जा सकती है। ‘सिगमा-4’ स्टैंडर्ड के लिए ख़राबियों की संख्या जहां 6,210 मशीनों तक हो सकती है वहीं ‘सिगमा-5’ स्टैंडर्ड के लिए ख़राबियों का दायरा 233 मशीनों तक सीमित रहना ज़रूरी है।
निहायत बेईमान है चुनाव आयोग
ये निर्विवाद है कि चुनाव आयोग के EVM का स्टैंडर्ड ‘सिगमा-6’ जैसा तो कतई नहीं है। इसीलिए तो VVPAT की ज़रूरत पड़ी। उसका जन्म हुआ। लेकिन यदि EVM को ज़िन्दगी भर के लिए अपाहिज बनाकर ही रखा जाएगा तो बेईमानी की शंकाएं कभी ख़त्म नहीं होंगी। चुनाव की सुचिता पर सवाल उठते ही रहेंगे। कोई तकनीक ऐसी नहीं है जो उन्नत ना हो सके। VVPAT की पर्चियों की 100% गिनती से ही प्रत्यक्ष तौर पर EVM और परोक्ष रूप से चुनाव आयोग की गरिमा बढ़ सकती है।
चुनाव आयोग ने यदि निष्पक्षता से तार्किक तथ्यों को स्वीकार कर लिया होता तो सुप्रीम कोर्ट जाने की नौबत ही क्यों आती? दरअसल, चुनाव आयोग निहायत बेईमान हो चुका है। उसकी निष्ठा और स्वायत्ता पर तमाम सवाल उठे हैं। उसे सरकार की कठपुतली की तरह देखा जा रहा है। उसका चुनाव प्रबन्धन न तो स्वतंत्र है और ना ही निष्पक्ष। वो तो प्रतिद्वन्दी उम्मीदवारों के बीच समान अवसर यानी Level playing field के सिद्धान्त को भी लागू नहीं कर पा रहा। कई पूर्व चुनाव आयुक्तों ने भी उसके पतन को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है।
राजनीतिक द्वेष का बोलबाला
राजनीतिक द्वेष के तहत मोदी सरकार ऐन चुनाव से पहले विरोधी दलों के मुखिया को जेल में ठूंस दे, उनके बैंक खातों के सील होने को भी तमाशबीन की तरह देखता रहे, सत्ता पक्ष के लोग अपने चुनाव प्रचार में प्रतिबन्धित शब्दावली का प्रयोग करते रहे और वो बेपरवाह बना रहे तो कौन मानेगा कि चुनाव आयोग ‘समान अवसर’ मुहैया करवा रहा है। इसी तरह, असंवैधानिक इलेक्टोरल बान्ड के ज़रिये जुटाये गये अकूत धन का सभी लाभार्थी दल इस्तेमाल करते रहे और चुनाव आयोग ख़ामोशी से तमाशा देखता रहे तो कौन ये मानेगा कि वो निष्ठापूर्वक अपना संवैधानिक दायित्व निभा रहा है?
क़ानून की कई बुनियादी मान्यताएं हैं। मसलन, कुछेक अपराधों में जहां अभियोजक (prosecutor) को अदालत में आरोपी का अपराध साबित करना पड़ता है, वहीं कुछेक अपराध ऐसे भी हैं जहां आरोपी को अदालत में ख़ुद को बेक़सूर साबित करना पड़ता है। जैसे, हत्या का आरोप जहां अभियोजक को साबित करना पड़ता है वहीं दहेज उत्पीड़न की पीड़िता की शिकायत को तब तक सही माना जाता है जब तक अदालत में आरोपों को झूठा साबित नहीं कर दिया जाता।
चुनाव आयोग क्यों है सवालों से परे?
आरोप है कि चुनाव आयोग के EVM में बेईमानी हो रही है। इसके जवाब में चुनाव आयोग की दलील है कि कोई बेईमानी नहीं होती। मशीन सच्ची है। लेकिन मशीन ख़ुद तो कह नहीं रही। कह ही नहीं सकती। जबकि मशीन का मालिक उसे बारम्बार सच्चा बताने पर आमादा है। वो मशीन का साफ़्टवेयर किसी को दिखाएगा नहीं, उसकी मशीन की क्वालिटी का कोई पैमाना है नहीं, किसी थर्ड पार्टी जांच एजेंसी ने कभी मशीन के सटीक होने का प्रमाण दिया नहीं।
दूसरी ओर जिसने मशीन बनायी है, वही उसके जांचकर्ता हैं और मुन्सिफ़ भी। VVPAT की पर्चियां निष्पक्ष मुन्सिफ़ की भूमिका निभा सकती हैं, लेकिन निभाएगी इसलिए नहीं कि चुनाव आयोग को इन्हें गिनने में 10-12 दिन लग जाएंगे। VVPAT में लगाया गया थर्मल पेपर भी इतनी पतला और चिपचिपा प्रकृति का है कि उसे गिनने में ढेरों ग़लतियां होने के आसार हैं। बहानेबाज़ी ऐसी खोखली दलीलों पर यक़ीन करना ही सुप्रीम कोर्ट का ग़लत फ़ैसला है।
हास्यास्पद तर्कों की भरमार
ये तर्क भी कितना हास्यास्पद कि संवैधानिक संस्था होने के नाते चुनाव आयोग को शक़ की नज़र से नहीं देखा जाना चाहिए। वो बेईमानी भी कर रहा हो तो भी चुपचाप उसकी बातों पर यक़ीन करते रहिए। भले ही पवित्र पदों पर पतित लोग क़ाबिज हों, उनकी सत्यनिष्ठा संदिग्ध तथा अपारदर्शी हो, दुर्भावना और पक्षपातपूर्ण हो। लेकिन VVPAT पर्चियों की 100% गिनती नहीं होगी क्योंकि चुनाव आयोग इसके लिए राज़ी नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट कैसे भूल गया कि इलेक्टोरल बान्ड डाटा को लेकर कैसे मोदी सरकार के इशारे पर स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया ने ‘वक़्त’ की आड़ में उसकी आंखों में धूल झोंका था। फिर वैसी ही शरारतें करके चुनाव आयोग ने कैसे सुप्रीम कोर्ट को चकमा दे दिया? साफ़ दिख रहा है कि VVPAT पर्चियों की 100% गिनती को लेकर चुनाव आयोग बेईमानी पर आमादा है। इससे लोकतंत्र का अपहरण हुआ है और लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ रही हैं।
क्यों घटा मतदान?
क्या सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग को यक़ीन होगा कि अब तक हुई दो दौर की वोटिंग के प्रति लोगों की उदासीनता इसलिए भी बढ़ी है कि उनका EVM की सच्चाई पर से भरोसा उठ चुका है? वोटिंग प्रतिशत की भारी गिरावट की वजह EVM की विश्वसनीयता क्यों नहीं हो सकती? ताज़ा आंकड़े क्या ये नहीं बता रहे कि वोटर्स लिस्ट में मौजूद क़रीब 40-45 फ़ीसदी मतदाताओं को EVM की सच्चाई पर यक़ीन नहीं है? चुनाव आयोग की सत्यनिष्ठा पर भरोसा नहीं है। उन्हें अपने मतदान और अंगुली पर लगी स्याही पर कतई गर्व नहीं होता। उन्हें इसकी सेल्फ़ी किसी को भेजने या सोशल मीडिया पर डालने में कोई मज़ा नहीं आता।
मोदी का ‘करारा तमाचा’
सुप्रीम कोर्ट के ग़लत फ़ैसले पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बेहद ख़ुश होना भी शर्मनाक ही है। बिहार में अररिया की चुनाव सभा में उन्होंने फ़ैसले को विपक्ष के मुंह पर ‘करारा तमाचा’ बता दिया। उन्होंने कहा, “आज जब पूरी दुनिया भारत के लोकतंत्र की, भारत की चुनाव प्रक्रिया की, भारत के चुनावों में टेक्नोलॉज़ी के उपयोग की वाह-वाही करती है, तारीफ़ करती है। तब ये लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए, बदनीयत से, ईवीएम को बदनाम करने पर लगे पड़े थे। इन्होंने लोकतंत्र के साथ लगातार विश्वासघात करने की कोशिश की है। लेकिन आज इन्हीं लोगों को देश की सर्वोच्च अदालत ने, सुप्रीम कोर्ट ने, ऐसा करारा तमाचा मारा है, ऐसा करारा तमाचा मारा है, ये अब मुंह ऊंचा करके देख नहीं पाएंगे।”
अरे, प्रधानमंत्री ये क्या बोल गये! सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला यदि ‘करारा तमाचा’ है कि तब तो आडवाणी जी, जीवीएल नरसिम्हा, अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, मुख़्तार अब्बास नक़वी जैसे दर्ज़नों नेताओं को चेहरे पर भी ज़रूर पड़ा होगा। इन सभी ने 2009 में पानी पी-पीकर उसी EVM को कोसा था, उसे भ्रष्ट बताया था, जो अभी तक सवालों के घेरे में है। प्रधानमंत्री कब बताएंगे कि उस दौर के बेईमान EVM में ऐसी कौन सी तब्दीली आयी कि उनके सत्ता में आते ही वो सदाचारी बन गया।
मोदी राज में चुनाव आयोग ऐसा पतित हो गया कि इसी सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें चयन प्रक्रिया सुधारने का आदेश दिया था। ये फ़ैसला किसके मुंह पर ‘करारा तमाचा’ था, जिसे आपने संसद से क़ानून बनाकर पलट दिया? आप यदि ‘करारा तमाचा’ विशेषज्ञ बन ही गये हैं तो लगे हाथ ये भी बता दीजिए कि चंडीगढ़ मेयर चुनाव में हुई ‘लोकतंत्र की हत्या’ किससे मुंह पर ‘करारा तमाचा’ थी? इलेक्टोरल बान्ड का फ़ैसला किसके तमतमाते मुंह पर जड़ा गया ‘करारा तमाचा’ है?
अचानक इस्तीफ़े क्यों?
मोदी जी ने तो चुनाव आयुक्त अशोक लवासा को इसलिए इस्तीफ़ा देने के लिए मज़बूर किया कि लवासा ने कह दिया था कि 2019 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री ने कई बार आदर्श चुनाव संहिता का उल्लंघन किया। मोदी जी ने अब तक देश को नहीं बताया कि उनके चहेते चुनाव आयुक्त अरूण गोयल भी अचानक इस्तीफ़ा देकर क्यों चलते बने? क्या कोई बताएगा कि बेईमान चुनाव आयोग ने किससे इशारे पर सूरत का चुनाव निर्विरोध सम्पन्न करवा दिया? किसने सूरत के सभी उम्मीदवार ख़रीद लिये या फिर उन्हें डरा-धमकाकर बैठा दिया? इसकी जांच कौन करेगा? बेईमान चुनाव आयोग या ग़लत फ़ैसला देने वाला सुप्रीम कोर्ट?
निर्विरोध की आड़ में अपराध
बीजेपी के ‘दलाल’ को सूरत के जो मतदाता अपना सांसद नहीं बनाना चाहते उन्हें चुनाव आयोग ने नोटा का बटन दबाने का अधिकार क्यों नहीं दिया? यदि ये सवाल अहम नहीं है तो फिर से सुप्रीम कोर्ट ने शिव खेड़ा की याचिका पर चुनाव आयोग से सफ़ाई क्यों मांगी? क्या देशवासियों ये उम्मीद करनी चाहिए कि सूरत के घोटाले पर भी चुनाव आयोग पूरी चतुराई से सुप्रीम कोर्ट को चकमा दे देगा?
याद रखिए कि निर्विरोध चुनाव सिर्फ़ वही होते हैं जिसमें नामांकन ही एकलौते उम्मीदवार ने दाख़िल किया हो। जहां सभी उम्मीदवार नामांकन के बाद अपना नाम वापस लेने को मज़बूर हों वहां का चुनाव तभी निर्विरोध हो सकता है कि जब पर्दे के पीछे आपराधिक गतिविधियां हुई होंगी। इसकी जांच के बग़ैर तो अपराधी और सच का पता तो चलने से रहा। चुनाव आयोग के सिवाय और कौन करेगा जांच? ज़ाहिर है, क़दम-क़दम पर चुनाव आयोग की मिलीभगत साफ़ दिख रही है। लिहाज़ा, कैसी जांच और कैसी कार्रवाई? कैसी ईमानदारी, कैसा भरोसा?
समस्त ब्रह्मांड में सिर्फ़ ‘मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी’ और ‘विश्व गुरु’ की जयजयकार हो रही है, दुनिया में भारत का सम्मान ऐसा बढ़ा है कि संघ के हिन्दू ध्वज की पताका पृथ्वी की कक्षा से बाहर अन्तरिक्ष में फ़हरा रही है। तभी तो अन्ध भक्त उन्हें ही लाएंगे जो राम को लाए हैं! चुनाव आयोग ऐसे अद्भुत अवतार की पालकी है और सुप्रीम कोर्ट कहार। कैसी विडम्बना है कि ‘बसन्ती, इन कुत्तों के आगे मत नाचना’, फ़िल्म का डायलॉग तो हो सकता है असल ज़िन्दगी का नहीं! (मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
सौजन्य :जनचौक
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