पहला दलित क्रिकेटर, जिसे अपने साथी छूते न थे, पर टीम की इज्जत वही बचाता था
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कैसे पालवंकर बालू 140 साल पहले क्रिकेट की दुनिया में ऐसे छाए कि राजाओं और अमीर पारसियों को उन्हें अपने साथ क्रिकेट खिलाने को मजबूर होना पड़ा. एक ऐसा खिलाड़ी, डॉक्टर भीम राव आंबेडकर जिसे अपना नायक मानते थे|
साल 1911. इस साल पहली बार भारत में एक ऐसी क्रिकेट टीम बनी थी, जिसमें हिन्दू और पारसी सभी खिलाड़ी थे. इस टीम को इंग्लैंड जाकर वहां की अलग-अलग क्रिकेट टीमों के खिलाफ मैच खेलने थे. टीम का कप्तान बनाया गया था पटियाला के नए नवेले राजा भूपेंद्र सिंह को. ये टीम लंदन पहुंची. वहां का मौसम और परस्थितियां सब अलग थीं. भारतीय टीम को वहां सामंजस्य बिठाने के लिए अच्छी रणनीति की जरूरत थी. लेकिन, टीम के कप्तान हर दिन अपने पांच नौकरों और सचिव केके मिस्त्री को लेकर सैर पर निकल जाते थे. मिस्त्री उस समय भारत के सबसे बढ़िया बल्लेबाज थे. राजा साहब घूमने में व्यस्त थे, तो ऐसे में रणनीति कहां बननी थी? एक दिक्क्त और हो गई. कप्तान के टीम पर ध्यान न देने से टीम, हिंदू और पारसियों के गुटों में बंट गई. और फिर इस टीम का बंटाधार हो गया. मैच हुए तो भारतीय बल्लेबाज अंग्रेजी गेंदबाजी के सामने ताश के पत्तों की तरह बिखर गई. इंग्लिश काउंटी की टीमों के साथ कुल 14 मैच खेले गए. भारत से गई टीम केवल दो ही जीत पाई|
लेकिन, इस भारतीय टीम में एक खिलाड़ी ऐसा था जिसका इस दौरान खूब डंका बजा. ये था एक गेंदबाज, जब ये स्पिन गेंदबाजी करने आता तो इंग्लिश टीम इसका सामना न कर पाती. कहर बरपाती गेंदें, तीर जैसी निकलतीं. तीर भी ऐसे जो हवा में किधर मुड़ेंगे, बल्लेबाज को समझ न आता. इस गेंदबाज ने उस पूरे दौरे पर अकेले 114 विकेट लिए. कहर बरपाकर रख दिया, लेकिन अकेला चना कैसे भाड़ फोड़ता, इसलिए टीम हार गई|
उस समय पूरी ब्रिटिश क्रिकेट बिरादरी इसकी गेंदबाजी की मुरीद हो गई थी. कौन था ये गेंदबाज? ये वो गेंदबाज था जिसे कभी उसकी टीम के सदस्य छूते तक नहीं थे, मैदान में उसके लिए एक ‘अछूत’ पानी लेकर जाता था. चाय भी पूरी टीम से अलग बैठकर मिट्टी के बर्तन में पीता. इसका नाम था- ‘पालवंकर बालू’|
तारीख के इस आर्टिकल में आज इन्हीं की कहानी जानेंगे. कैसे ये दलित गेंदबाज 140 साल पहले क्रिकेट की दुनिया में ऐसा छाया कि उसे राजाओं और अमीर पारसियों को अपने साथ क्रिकेट खिलाने को मजबूर होना पड़ा| एक ऐसा खिलाड़ी, डॉक्टर भीम राव आंबेडकर जिसे अपना नायक मानते थे|
इतिहासकारों की मानें तो 1721 वो साल था, जब पहली बार भारत की धरती पर किसी को क्रिकेट खेलते देखा गया था. गुजरात का कैंबे पत्तन इलाका जिसे अब खम्बात बुलाते हैं. यहीं पर समुद्र के किनारे करीब 15 दिन कुछ ब्रिटिश नाविक रुके थे और उन्होंने अपना समय काटने के लिए यहां क्रिकेट मैच खेले थे| इसके बाद अंग्रेज अफसरों को कई बार कई अलग-अलग जगहों पर मैच खेलते देखा गया|
इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी बुक – ‘ए कॉर्नर ऑफ ए फॉरेन फील्ड’ – में लिखते हैं कि इंग्लैंड से बाहर पहला क्रिकेट क्लब कोलकाता में 1792 में बना. इसी दौरान मद्रास में और 1825 में बंबई में बड़े क्रिकेट मैच होने शुरू हुए. अनजान देश के वातावरण से ऊबे अंग्रेज अफसरों को ये खेल एक सुकून देता था. उन्हें क्रिकेट, घर से दूर किसी महबूबा से कम नहीं लगता था|
भारतीयों तक क्रिकेट कब पहुंचा?
धीरे-धीरे क्रिकेट भारत में चर्चित होने लगा. भारतीयों में सबसे पहले क्रिकेट खेलने वाले बंबई के पारसी लोग थे. ज्यादातर पारसी बड़े बिजनसेज में थे, अंग्रेजों के दोस्त थे, इस वजह क्रिकेट उन तक पहले पहुंचा| सन 1848 में मुंबई के कुछ पारसी लड़कों ने ‘ओरियंटल क्रिकेट क्लब’ की नींव रखी. दो साल बाद इस क्लब का नाम पड़ा – यंग जोरास्ट्रियन क्लब. इसे टाटा और वाडिया बिजनेस ग्रुप्स से फंड मिलता था. ये आज 170 साल बाद भी अच्छे से चल रहा है. इस एक क्लब के शुरू होने के बाद 1850 से 1860 बीच लगभग 30 से ज्यादा पारसी क्रिकेट क्लब खुले. ये आपस में टूर्नामेंट खेलते. जीतने वालों को बड़ी इनामी रकम मिलती थी|
पारसियों के टूर्नामेंट्स की चकाचौंध ने हिन्दुओं का भी ध्यान क्रिकेट की तरफ आकर्षित करना शुरू किया. रामचंद्र विष्णु नावलेकर क्रिकेट खेलने वाले पहले हिंदू व्यक्ति थे\ 1861 में उन्होंने क्रिकेट खेलना शुरू किया| पांच साल बाद बंबई यूनियन क्रिकेट क्लब ने उनकी मदद की, फिर उन्होंने और हिन्दुओं को अपने साथ जोड़ा. 1877 में एल्फिंस्टन हाईस्कूल के मराठी छात्रों ने अपना हिंदू क्रिकेट क्लब बनाया. शुरुआत में इसमें काफी कम लोग थे. लेकिन, कुछ समय बाद जब गुजरात के कुछ व्यापारी इस क्लब से जुड़े तो इसे बढ़िया फंड मिलना शुरू हो गया| और फिर ये भी एक अच्छा और प्रतिष्ठित क्रिकेट क्लब बन गया|
1977 में ही पारसियों और अंग्रेजों के क्लब – बंबई जिमखाना – के बीच पहला दो दिवसीय मैच हुआ. ये मैच ड्रॉ रहा. इसके बाद पारसियों, अंग्रेजों और हिन्दू क्रिकेट क्लबों के बीच बड़े क्रिकेट टूर्नामेंट होने शुरू गए|
लगभग इसी समय मुंबई से करीब डेढ़ सौ किलो मीटर दूर पूना में एक छह साल का बच्चा पालवंकर बालू अंग्रेजी सैनिकों को क्रिकेट खेलते देख बड़ा हो रहा था. उसके पिता यहां हथियारों के कारखाने में काम करते थे. बालू दिनभर ब्रिटिश अफसरों के मैच देखता. मैदान के बाहर बैठ जाता और अपने पास आने वाली गेंदों को उठाकर वापस मैदान में फेंक देता. उसे इसमें बड़ा मजा आता. अंग्रेज अफसर जिन बल्लों और गेंदों को बेकार समझ कर कूड़े में डाल देते, बालू उन्हें उठा लाता और अपने छोटे भाई शिवराम के साथ घर में क्रिकेट खेलता|
दोनों भाई कुछ बड़े हुए तो पिता ने परिवार की आय बढ़ाने के लिए इनकी पढ़ाई छुड़वा दी. पारसियों द्वारा चलाए जाने वाले एक क्रिकेट क्लब में बालू की पहली नौकरी लगी. यहां वो पिच की सफाई और मरम्मत का काम करते थे. कभी-कभी नेट पर प्रैक्टिस करने वाले खिलाड़ियों को बॉलिंग भी कर देते थे. यहां उन्हें हर महीने तीन रुपए मिलते थे|
पालवंकर बालू अपने पूर्वजों की तरह ही पूना की असलहा फैक्ट्री में चमड़े का काम करने आए थे. लेकिन उनकी चर्चा शहर में उनकी उम्दा गेंदबाजी के चलते होने लगी. पूना में ही उस समय एक हिंदू क्लब था, जो शहर में यूरोपियों के खिलाफ मैच खेलता था. बालू की चर्चा इस क्लब तक भी पहुंची. इस क्लब को उस समय एक अच्छे गेंदबाज की जरूरत थी, ऐसा जो यूरोपियों यानी ब्रिटिश बल्लेबाजों के विकेट उखाड़ दे. ऐसे में हिन्दू क्लब की नजर पालवंकर बालू पर पड़ी. लेकिन बालू तो एक दलित थे, और हिन्दू क्लब की टीम में थे ऊंची जाति के लोग. अब ऐसे में एक दलित के साथ कैसे खेला जाए, सवाल ये था, और इस सवाल पर हिंदू क्रिकेट क्लब दो गुटों में बंट गया|
इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं-
‘हिंदू क्लब के कुछ तेलगु सदस्य बालू को टीम में शामिल करने के पक्ष में थे, जबकि कुछ स्थानीय मराठी भाषी ब्राह्मण इसके सख्त खिलाफ थे. ऐसे में ब्रिटिश खेमे के जेजी ग्रेग इस लड़ाई में कूद गए. उन्होंने एक इंटरव्यू में कह दिया कि वो लोग मूर्ख हैं, जो बालू को टीम में शामिल करना नहीं चाहते|
अखबारों में आए दिन इस पर खबरें छपतीं. देखते ही देखते मुद्दा काफी चर्चा में आ गया. आखिरकार पालवंकर बालू को अगली गर्मी में होने वाले टूर्नामेंट में हिन्दू क्लब की टीम में शामिल कर लिया गया|
बालू के साथ कैसा व्यवहार होता था?
बालू को टीम में शामिल तो किया गया था, लेकिन उनके साथ व्यवहार बहुत गलत हो रहा था. मैदान पर सभी खिलाड़ी उसी गेंद को छूते, जिसे बालू छूते, लेकिन मैदान के बाहर ऊंची जाति के खिलाड़ी उनके साथ छुआ-छूत के धार्मिक रिवाजों का पालन करते. चाय-विश्राम यानी टी टाइम के समय बालू को पवेलियन के बाहर मिटटी के एक कुल्हड़ में चाय दी जाती, जबकि बाकी खिलाड़ी पवेलियन में बैठक चीनी-मिटटी के कपों में चाय का आंनद लेते. अगर ग्राउंड पर बालू को हाथ मुंह धोना होता तो एक अछूत नौकर केतली में पानी ले जाकर, एक कोने में उनके हाथ-मुंह धुलवाता. बालू लंच भी अलग थाली में अलग टेबल पर करते|
भले ही टीम में बालू को इस तरह से पिछड़ा दिखाया जाता हो, लेकिन वो खेल में सबसे अव्वल और सबसे ऊंचे थे. अंग्रेज उनकी गेंदबाजी से कांपते थे. एक बार उनकी टीम सतारा में अंग्रेजों के जिमखाना क्लब के खिलाफ मैच खेलने पहुंची. अंग्रेजों ने विशेष आदेश देकर ऐसी पिच बनवायी कि पालवंकर बालू को कोई मदद न मिले. लेकिन, बालू ने जब गेंदबाजी की तो अंग्रेज बल्लेबाजों की कमर टूट गई और वो केवल बालू की वजह से मैच हार गए| इस अछूत गेंदबाज ने मैच में सात विकेट झटके. फिर उन्हें सतारा में हाथी पर बिठाकर पूरे शहर में घुमाया गया. एक सम्मान समारोह हुआ जिसमें महान समाज सुधारक महादेव गोविंद रानाडे ने उन्हें माला पहनाई. रानाडे ने इस दौरान हिन्दू क्लब के ब्राह्मण खिलाड़ियों को समझाया कि वो जब पालवंकर बालू के साथ खेल सकते हैं, तो उन्हें उनके साथ खाना-पीना भी चाहिए. कुछ रोज बाद एक सार्वजनिक समारोह में बाल गंगाधर तिलक ने भी बालू का सम्मान किया|
बालू की गेंदबाजी की अब तूती बोलती थी, ब्रिटिश अखबारों में उनपर लेख लिखे जाते थे, उनकी तुलना महान ब्रिटिश गेंदबाजों से की जाती थी. 1907 से लेकर 1911 तक खेले गए पांच मैचों में उन्होंने 40 विकेट लिए. हर विकेट के लिए उन्होंने 10 से भी कम रन खर्च किए|
इंग्लैंड जाकर टीम ने भद्द पिटवा दी, लेकिन बालू छा गए
1911 में भारत की टीम इंग्लैंड जानी थी. इस साल पहली बार इंग्लैंड एक ऐसी टीम भेजी गयी जिसमें पारसियों के साथ-साथ हिन्दू भी थे. पटियाला के राजा भूपेंद्र सिंह को कप्तानी सौंपी गई| ये टीम लंदन पहुंची| वहां का मौसम और परस्थितियां सब अलग थीं. भारतीय टीम को वहां सामंजस्य बिठाने के लिए अच्छी रणनीति की जरूरत थी| लेकिन, टीम के कप्तान राजा भूपेंद्र सिंह हर दिन अपने सचिव केके मिस्त्री को लेकर सैर पर निकल जाते थे| ये दोनों ही टीम के सबसे अच्छे बल्लेबाज थे, इनके बिना भारतीय बल्लेबाजों का अंग्रेजी विकेट पर टिकना और वहां के गेंदबाजों का सामना करना मुश्किल था|
कप्तान के टीम पर ध्यान न देने से टीम में हिंदू और पारसियों के गुट बन गए. और फिर ये टीम बुरी तरह हारी. मान्यता प्राप्त अंग्रेजी काउंटीज के खिलाफ टीम ने 14 मैच खेले. भारतीय टीम इनमें से केवल दो मैच जीत पाई, दो ड्रॉ रहे. अल्सटर और उत्तरी स्कॉटलैंड की दोयम दर्जे की टीमों खिलाफ भारतीय टीम ने चार मैच जीते, पांच हारे|
लेकिन इस दौरान अंग्रेजों को बालू की फिरकी खेलनी मुश्किल पड़ गई. बालू ने इंग्लैंड दौरे पर 114 विकेट लिए. बताते हैं कि अगर बढ़िया फील्डिंग हुई होती तो उन्हें 150 विकेट भी मिल सकते थे|114 विकेट लेकर उन्होंने जो रिकॉर्ड बनाया वो अभी तक नहीं टूटा है, 1946 में वीनू मांकड़ ही एक ऐसे भारतीय गेंदबाज थे जो इंग्लैंड दौरे पर प्रथम श्रेणी क्रिकेट में 100 से ज्यादा विकेट लेने में कामयाब रहे थे. हालांकि वो भी बालू के रिकॉर्ड तक नहीं पहुंचे थे|
कुल मिलाकर 15 सितंबर 1911 को जब पालवंकर बालू इंग्लैंड से वापस आए तो उनका भारत में भव्य स्वागत किया गया. मुम्बई में कई दिनों तक उनके लिए सम्मान समारोह आयोजित किए जाते रहे. अब तक क्रिकेट के मैदान पर अपने असाधारण प्रदर्शन से बालू अनगिनत अछूतों के नायक और उनकी प्रेरणा बन चुके थे. उनमें से एक 20 साल के भीम राव आंबेडकर भी थे. बताते हैं कि इंग्लैंड से लौटने पर एक सम्मान समारोह में पालवंकर बालू को जो सम्मान पत्र दिया गया उसके लेखक आंबडेकर ही थे|
सौजन्य : द ललन टॉप
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