जिंदल समूह के ख़िलाफ़ क्यों प्रदर्शन कर रहे हैं झारखंड के आदिवासी- ग्राउंड रिपोर्ट
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जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड ने पावर प्लांट के लिए 2012 में यहां ग्रामीणों की ज़मीनें ली थीं लेकिन आज तक इस पर काम शुरू नहीं हुआ है| इसकी वजह से टुडू ख़फ़ा हैं और अपनी ज़मीन वापस करने की मांग कर रही हैं|
“मैं तीन साल तक बीमार रही. मुझे कोई पूछने नहीं आया. एक गोली तक नहीं मिली. जबकि, उन लोगों ने कहा था कि स्वास्थ्य की सुविधा देंगे. जिंदल कंपनी ने मेरी ज़मीन ले ली और पूरा पैसा नहीं दिया. हर महीने एक हज़ार रुपये मिलने थे, वो भी नहीं मिलते हैं. मैं जंगल में जाकर पत्ते चुनती हूँ. दतुअन (दातून) काट कर लाती हूँ. उसी को बेचकर हमारा गुज़ारा चलता है.”
बिटिया टुडू ये बातें कहते हुए हाँफने लगती हैं. वे हिन्दी नहीं जानतीं, संथाली बोलती हैं|
जिस खाट पर अपने पति बबलू मरांडी के साथ बैठकर वे हमसे बातें कर रही थीं उसके बगल में मिट्टी का चूल्हा रखा है. इसी चूल्हे पर घर का खाना बनता है टुडू को उज्ज्वला योजना की कोई जानकारी नहीं है, यहां तक कि उन्हें ये भी पता नहीं कि गैस का चूल्हा कैसा होता है|
बिटिया टुडू झारखंड के गोड्डा ज़िले के बारिसटांड़ गाँव की निवासी हैं. यह गोड्डा प्रखंड के निपनियां पंचायत का हिस्सा है. वे अपने टूटे-फूटे खपड़ैल के घर में रहती हैं|
जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड ने पावर प्लांट के लिए 2012 में यहां ग्रामीणों की ज़मीनें ली थीं लेकिन आज तक इस पर काम शुरू नहीं हुआ है. इसकी वजह से टुडू ख़फ़ा हैं और अपनी ज़मीन वापस करने की मांग कर रही हैं|
बीबीसी हिंदी से वे कहती हैं कि जिंदल समूह या तो यहाँ जल्दी से पावर प्लांट लगाए और एग्रीमेंट की शर्तें पूरी करे या फिर हमारी ज़मीन वापस कर दे ताकि वे खेती कर सकें|
बिटिया टुडू उन सैकड़ों आदिवासी रैयतों में से एक हैं, जिनकी ज़मीनें जेएसपीएल ने गोड्डा ज़िले में प्रस्तावित अपने 1,320 मेगावाट के पावर प्लांट के निर्माण के लिए 2012-13 में सरकार की सहमति से ली थी. तब ग्रामसभा ने क्षेत्र के विकास के मद्देनज़र इन ज़मीनों के हस्तांतरण पर सहमति दी थी.
राष्ट्रपति ने साल 2013 में किया था शिलान्यास
जेएसपीएल के इस प्रस्तावित पावर प्लांट का शिलान्यास करने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी 30 अप्रैल 2013 को यहाँ आए थे|उनके साथ जेएसपीएल के प्रमुख नवीन जिंदल, झारखंड के तत्कालीन राज्यपाल सैयद अहमद, पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय और सांसद निशिकांत दुबे भी मंच पर मौजूद थे|
तब नवीन जिंदल ने स्थानीय मीडिया से कहा था कि यहाँ 8,500 करोड़ रुपये के निवेश से 660 मेगावाट क्षमता वाली 2 इकाइयाँ लगाई जाएँगी और निर्माण का काम अगले साढ़े तीन साल में पूरा कर लिया जाएगा. मतलब, यह निर्माण साल 2017 तक पूरा कर लिया जाना था.
कोल ब्लॉक के लिए भी आवेदन
जेएसपीएल ने तब इससे महज़ 10 किलोमीटर दूर स्थित जीतपुर कोल ब्लॉक के लिए भी आवेदन किया था. ताकि, उससे मिले कोयले का उपयोग पावर प्लांट के लिया किया जा सके लेकिन साल 2014 में सरकार बदल गयी.
नई सरकार ने जीतपुर कोल ब्लॉक आवंटन में रुचि नहीं ली और जिंदल समूह को यह खदान नहीं मिल सकी. इसके बाद पावर प्लांट का निर्माण लटक गया.
कितनी ज़मीनें ली गईं
जिंदल समूह ने अपने पावर प्लांट के लिए झारखंड सरकार से तब 800 एकड़ से भी अधिक ज़मीन की माँग की थी. इसमें पावर प्लांट के साथ कोल ब्लॉक के लिए कॉलोनी का निर्माण, पानी के संयंत्र और दूसरे निर्माण भी शामिल थे. लेकिन, उसे तब इतनी ज़मीन नहीं मिल सकी|
जेएसपीएल ने सरकार और ग्रामीणों को विश्वास में लेकर क़रीब 350 एकड़ ज़मीन लीज़ पर ली. इसमें अधिकतर ज़मीनें रैयती थीं. कुछ ग़ैर-मजरुआ ज़मीन भी उन्हें दी गई.
जिंदल समूह ने इसके लिए अक्टूबर 2012 में गोड्डा प्रखंड के बारिसटांड़, निपनियां और जलगर गाँवों के रैयतों से करार किया. इस एग्रीमेंट की एक प्रति बीबीसी के पास मौजूद है|
ग्रामीणों का दावा है कि 300 से भी अधिक परिवारों की ज़मीनें लीज़ पर ली गईं. इनमें से 80 फ़ीसद आदिवासी हैं. शेष 20 फ़ीसद रैयत पिछड़ी जातियों के हैं. कुछ ज़मीनें मुसलमानों की भी हैं.
एग्रीमेंट की शर्तें
जिंदल समूह ने तब प्रति एकड़ 7 लाख रुपये का मुआवज़ा दिया|
इसके साथ ही प्रति एकड़ 1,000 रुपये हर महीने देने, पावर प्लांट लगने पर रैयतों (ज़मीन मालिकों) और उनके आश्रितों को रोज़गार देने, स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाएँ उपलब्ध कराने जैसे वायदे भी किए गए|
जेएसपीएल ने पावर प्लांट के शिलान्यास स्थल से कुछ ही दूरी पर टेसोबथान में अपना दफ़्तर और गार्ड बैरक भी बनाया है|
इसी परिसर में स्वास्थ्य केंद्र का बोर्ड लगा है|
हालाँकि, 2 अक्टूबर की दोपहर जब बीबीसी टीम वहाँ पहुँची, तो वह हेल्थ सेंटर और दफ़्तर बंद मिले. वहाँ तैनात सिक्योरिटी गार्ड ने बताया कि गांधी जयंती के कारण ये दफ़्तर बंद है.
वादा-ख़िलाफ़ी के आरोप
बारिसटांड़, निपनियां और जलगर गाँवों के दर्जनों ग्रामीणों ने बीबीसी से कहा कि जिंदल समूह करार की शर्तों का पालन नहीं कर रहा है और जिस उद्देश्य से हमारी ज़मीनें ली गईं, वह भी पूरा होता नहीं दिख रहा.
इससे आक्रोशित सैकड़ों ग्रामीणों ने सितंबर में पारंपरिक आदिवासी हथियारों के साथ टेसोबथान स्थित जेएसपीएल दफ़्तर पर प्रदर्शन कर ज़मीन वापसी की माँग की.
अब स्थानीय कांग्रेस विधायक प्रदीप यादव ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पत्र लिखकर यही माँग की है|
विधायक प्रदीप यादव ने कहा, “गोड्डा ज़िले में जिंदल पावर लिमिटेड द्वारा ग्राम निपनिया और बारिसटांड़ के रैयतों की सैकड़ों एकड़ खेतिहर भूमि अधिग्रहित की गई है. पर 11 साल बाद भी अब तक कार्य शुरू नहीं किया गया है. भूमि अधिग्रहण के इकरारनामे के तहत यह भूमि किसानों को वापस दी जानी चाहिए. इसको लेकर मैंने मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव से चर्चा की है. उन्होंने सकारात्मक कार्रवाई का आश्वासन दिया है.”
ग्रामीणों की व्यथा
बारिसटांड़ गाँव की सूरजमुनि हेंब्रम के पति मोतीलाल सोरेन परिवार चलाने के लिए दूसरे राज्य में मज़दूरी करते हैं. सूरजमुनि अपने 12 और 10 साल के बेटों के साथ घर पर अकेली रहती हैं.
उन्होंने बीबीसी से कहा, “जिंदल ने बहुत सस्ते में हमारी ज़मीन ले ली. पूरा पैसा भी नहीं दिया. बोला था, स्वास्थ्य की सुविधा देंगे. बच्चों को पढ़ाएँगे. लेकिन, कुछ नहीं मिलता. मेरे बच्चे नहीं पढ़ते हैं. घर में रहते हैं. पहले मुझे हर महीने 1,500 रुपये मिलते थे, अब केवल 1,000 रुपये मिलते हैं. खेती वाला सारा ज़मीन प्लांट के लिए ले लिया. अब सिर्फ़ टांड़ बचा है. कुछ भी उपज नहीं होता. पैसा भी खत्म हो गया. अब हमारे पास कुछ नहीं बचा है. कैसे परिवार चलाएँ.”
कमोबेश यही कहानी राम मुर्मू और तालामोयी हेंब्रम की भी है. राम मुर्मू अपने छह बच्चों के साथ मज़दूरी कर परिवार चला रहे हैं और तालामोयी हेंब्रम को भी एग्रीमेंट की शर्तें पूरी नहीं होने का दुःख है|
निपनियां के सुकुल मुर्मू ने बीबीसी से कहा कि उनकी ज़मीन पर जबरन क़ब्ज़ा किया गया|उन्हें न तो मुआवज़ा मिला और न हर महीने मिलने वाले पैसे ही मिलते हैं|
बारिसटांड़ के संजीव कुमार गुप्ता को भी हर महीने 1,000 रुपये नहीं मिलते.
निपनियां गाँव के रामकृष्ण महतो राजमहल कोर्ट में वकालत करते हैं. वे उन कुछ लोगों में से एक हैं, जिन्होंने ग्रामीणों के प्रतिनिधि के बतौर एग्रीमेंट पर दस्तखत किया था|
रामकृष्ण महतो ने बीबीसी से कहा, “जिंदल समूह ने हमारे साथ चीटिंग की है. उन्हें 5 साल के अंदर अपना निर्माण पूरा कर पावर प्लांट चालू कर देना था. अब 11 साल हो चुके. अभी तक सिर्फ़ बाउंड्री वाल का निर्माण हुआ है.”
“अब पता चला है कि सरकार ने उनके पावर प्लांट को मंज़ूरी नहीं दी है. इसलिए वे यहाँ पर बहुत कम क्षमता वाले सोलर प्लांट के निर्माण के लिए प्रयासरत हैं. यह करार के अनुरूप नहीं है. लिहाज़ा, झारखंड सरकार के भूमि अधिग्रहण प्रावधान के मुताबिक़ रैयतों की ज़मीनें वापस की जानी चाहिए.”
जिंदल समूह का पक्ष
जेएसपीएल की साइट पर पदस्थापित स्टेशन मैनेजर रंजन राय ने मीडिया से कहा कि उनकी कंपनी प्लांट निर्माण के लिए गंभीर है. वे सरकार के निर्णय का इंतज़ार कर रहे हैं|
जिंदल समूह के बड़े अधिकारी इस मसले पर आधिकारिक तौर पर कुछ भी बोलने से बचते हैं. जेएसपीएल ने बीबीसी के इससे संबंधित मेल का भी जवाब नहीं दिया. उनका आधिकारिक जवाब मिलते ही हम इस रिपोर्ट को अपडेट कर देंगे|
वहीं जेएसपीएल के एक अधिकारी ने बीबीसी से कहा कि ‘हमने बड़ी उम्मीदों के साथ गोड्डा का पावर प्लांट खोलना चाहा था लेकिन सरकार उसको लेकर कभी गंभीर नहीं रही. इस कारण हम अभी तक अपना निर्माण प्रारंभ नहीं कर सके. फिर भी हमें मौजूदा सरकार से काफ़ी उम्मीदें हैं. हमें सुविधाएँ और अनुमति मिली, तो हम जल्दी ही अपना निर्माण शुरू करने के पक्ष में हैं.’
उन्होंने बीबीसी से कहा, “जहाँ तक रैयतों के साथ हमारे एग्रीमेंट का मसला है. हम उसको लेकर गंभीर हैं. करार की हर शर्त हम पूरी करेंगे और कर भी रहे हैं. हमारा प्लांट बना भी नहीं और हम हर महीने 13 लाख से भी अधिक की राशि रैयतों के खाते में डाल रहे हैं. डॉक्टर बैठाया है. एंबुलेंस की सुविधाएँ दी है. क्योंकि. जिंदल समूह की पहचान उसके सीएसआर और वैल्यूज को लेकर है.”
वे कहते हैं, “हमें विश्वास है कि सरकार हमारे आवेदन पर विचार करेगी. हमारे पावर प्लांट के निर्माण के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनेंगी और हम संताल परगना जैसे पिछड़े इलाके में पावर प्लांट लगातार विकास कार्य के पार्टनर बनेंगे.”
सौजन्य : बीबीसी हिंदी
नोट : समाचार मूलरूप से bbc.com/hindi में प्रकाशित हुआ है ! मानवाधिकारों के प्रति सवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित !