अन्नै मीनमबल शिवराज: जातिवादी व्यवस्था का विरोध करने वाली पहली दलित महिला
किसी ने सही कहा है कि “स्त्री पैदा नहीं होती, स्त्री बनाई जाती है”. हमारे जातिवादी व्यवस्था और पितृसत्ता समाज में रूढ़ीवाद रिवाजों से निकल कर अपने अधिकारों को लेना इतना आसन नहीं है. जब कोई भी स्त्री पैदा होती है तो खुद को एक इंसान ही समझती है लेकिन उसे उसकी सीमाएं, उसका दायरा हमारा पितृसत्ता समाज दिखता है. हमारे समाज में उन स्त्रियों को संस्कारविहीन समझा जाता है जो सामाजिक बेड़ियों को तोड़कर अपनी शर्तो पर अपना जीवन जीना चाहती है. पुराने समय से ही ऐसी महिलाएं हुई है जिन्होंने अपने हकों के साथ दूसरी महिलाओं को भी इनका हक दिलवाया है. हमारे समाज में कई कुर्तियों है लेकिन जातिवाद सबसे खतरनाक है. सोचो कितना मुश्किल होगा एक जातिगत और पितृसत्ता समाज में दलित महिलाओं का रहना. जहाँ उन्हें जातिगत भेदभाव के साथ लिंग भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है. लेकिन समय समय पर कुछ महिलाएं ऐसी भी हुई है, जिन्होंने यह भेदभाव स्वीकार नहीं किया और अपने हक की लड़ाई लड़ी.
दोस्तों, आईये आज हम एक ऐसी ही दलित महिला के बारे में बताएँगे, जिसने न सिर्फ खुद के हकों के लिए लडाई की बल्कि दूसरी दलित महिलाओं को भी उनके हकों के प्रति जागरूक किया.
कौन है जातिवादी व्यवस्था का विरोध करने वाली दलित महिला अन्नै मीनमबल शिवराज
अन्नै मीनमबल शिवराज हमारे देश पहली दलित महिला है, जिन्होंने खुद के अधिकारों के किए लड़ाई साथ दलित महिलाओं को भी उनके अधिकारों से जागरूक करवाया था. उनकी लड़ाई देश के राष्ट्रीय मामलो में दलित महिलाओ को भी शामिल करने की थी. इनका जन्म 26 दिसंबर 1904 को बर्मा (अब म्यांमार) के रंगून में में हुआ था. आगे चलकर इनके परिवार ने वहां से तमिलनाडु की तरफ आ गया था. इनके पिता का नाम वासुदेवपिल्लई और माता का नाम मीनाक्षी था. इनका परिवार पहले से ही जातिगत भेदभाव के सख्त खिलाफ था. उनके परिवार में ज्यादातर लोग दलित नेता थे. जिसके चलते अन्नै मीनमबल को आंदोलन के संघर्षों के बारे में पहले से ही पता था. वह अपना स्नातक पूरा करने के बाद वह मद्रास चली गई ताकि देश की राजनीतिक स्थिति को बेहतर जान सके और दलित औरतों के लिए कुछ कर सकें.
दलित महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए क्या किया
हम आपको बता दे कि अन्नै मीनमबल के राजनीतिक कार्य 1928 में शुरू हुए. उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र में साइमन कमीशन के पक्ष में भाषण दिया था. जिसका विरोध उच्च जाति के कुछ राजनेता ने यह कहकर किया था कि यह भारतीय हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करता. जबकि अन्नै मीनमबल ने कमीशन से दलितों के लिए सकारात्मक कामों की अपील की थी. इसके बाद वह डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और इ.वी.आर रामास्वामी के साथ रही और दलितों के लिए कार्य किया. तमिलनाडु के दलितों के मन में चेतना और जाति-विरोधी आंदोलनों का संदेश दिया.
अन्नै मीनमबल ने दिसम्बर 1937 में एक कांफ्रेंस में कहा था कि “कहा जाता है कि यदि एक परिवार में एकता ना हो तो उसका नाश हो जाता है। इसी वजह से यह ज्ञात होना चाहिए कि समाज, राष्ट्र या अन्य कोई भी चीज को उन्नति करने के लिए एकता की ताकत चाहिए। हालांकि हमारे देश से इस बात को खत्म करने में समय लगेगा, लेकिन फिर भी हमें अपने समुदाय के लोगों को एक साथ होकर यह साबित करना होगा कि हम भी उनकी तरह मनुष्य हैं”.
अन्नै मीनमबल ने अपने जीवनकाल में विभिन्न पदों को संभाला है. वह मद्रास की मैजिस्ट्रेट थी, कुछ समय वह पोस्ट-वार रिहैबिलिटेशन सेंटर की सदस्य भी रही थी. जिसके बाद वह अनुसूचित जाति सहकारी बैंक के निदेशक भी रही थी. इन्होने मद्रास सम्मेलन में ई.वी. रामास्वामी को ‘पेरियाश’ नाम भी दिया था. कहा जाता है कि ई.वी. रामास्वामी पहले इस नाम को सुनकर हसें फिर बहन के उपहार के तौर पर नाम स्वीकार कर लिया था. आपको बता दे कि 1925 में, ई.वी. रामास्वामी द्वारा आत्मसम्मान आंदोलन की शुरुआत की गई थी. मीनमबल इस आंदोलन में उनका बहुत समर्थन किया था. वह इस अन्दोलन की नातिवादी नेताओं में से एक थी. जिसके तहत उन्होंने दलित औरतों को उत्पीड़न, जाति असमानता, छुआछूत के खिलाफ लड़ाई में उनकी सक्रिय भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया. इन्होने अपने पूरे जीवन में उन्होंने दलित समुदाय के लिए काम किया और 80 वर्ष की आयु में सार्वजनिक सेवा से सेवानिवृत्त हो गईं. 30 नवंबर 1992 को उनका निधन हो गया .
सौजन्य : Nedrick news
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