फिर उभरी मनुस्मृति पर बहस

कब विश्व की क्लासिकीय रचनाएं-जिन्होंने बिखेरे ज्ञान के मोतियों पर अक्सर बात होती रहती है-कभी कभी जबरदस्त विवाद का भी सबब बन सकती हैं, यह नहीं कहा जा सकता या कब कल के अग्रणी विचारक, क्रांतिकारी-जिन्होंने युग को प्रभावित किया-वह कुछ मामलों में कब अपने समय की सीमाओं में ही कैद नजर आ जाएंगे, इसकी भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। वरना ऐसे कहां संभव था कि दुनिया के महानतम नाटककारों में शुमार शेक्सपीयर, जो आज भी विश्व भर में सराहे जाते हैं और लोग उनके कलाम से ताकत हासिल करते हैं, वह भी अपने कथित ‘यहूदी विरोध के लिए’/सामीवाद विरोध/आलोचना का शिकार बन जाते, जब उनके बहुुचर्चित नाटक मर्चेंट आफ वेनिस के ‘खलनायक’ शायलॉक के चित्रण को लेकर आक्षेप खड़े किए जाते, या फ्रांसिसी क्रांति (1789) के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक समूह के तौर पर जाने वाले जैकोबिन, स्त्रियों के प्रति उनके संकीर्ण नजरिये के रेखांकित किए जाते या गौतम बुद्ध, जिन्होंने अपने राजपाट को त्याग दिया और जो सत्य की तलाश में निकल पड़े, उन्हें भी महिलाओं को लेकर उनके उदगारों या रुख के लिए आज भी आलोचना झेलनी पड़ती।
पिछले दिनों ऐसा की प्रसंग भारत में तारी हुआ, जब तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस-जिसमें स्त्रियों और उत्पीड़ित जातियों के कथित तौर पर अपमानजनक चित्रण को लेकर बहस चल पड़ी; एक खेमा जहां इस बात को सिरे से खारिज कर रहा था, वहीं दूसरा खेमा उन सबूतों को एक के बाद पेश कर रहा था कि उसकी बात किस तरह सही है। अभी बहस जारी ही थी और यह मसला बहसतलब था कि ऐसी रचनाओं को आधुनिक युग की संवेदनाओं के मददेनजर किस तरह देखा जाए? क्या ऐसी रचनाओं का संपादन किया जाए या उन्हें बिल्कुल त्याग दिया जाए? उस प्रष्ठभूमि में देश के अग्रणी केंद्रीय विश्वविद्यालय में शुमार काशी हिंदू विश्वविद्यालय का धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग ऐसा प्रस्ताव लेकर सामने आया है, जिससे यह विवाद थमने के बजाय और बढ़ने के ही आसार लग रहे हैं। प्रस्ताव था उस किताब की उपयोगिता/प्रयोज्यता को लेकर अनुसंधान करने का जो मध्यकाल के पहले से रचित बतायी जाती है और जो विगत एक सदी से अधिक समय से लगातार विवादों के केंद्र में रही है, यह किताब किस तरह ‘दलितों एवं स्त्रियों को अपमानित ढंग से पेश करती है,’ उसे रेखांकित करते हुए आंदोलन भी चले हैं।
‘भारतीय समाज में मनुस्मृति की प्रयोज्यता’ विषय पर अनुसंधान की योजना का यह प्रस्ताव, इस शिक्षा संस्थान के धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग से पेश हुआ है-जहां पहले से ही प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अध्ययन के तहत मनुस्मृति की पढ़ाई होती है। इस संबंध में जारी अधिसूचना के मुताबिक इसके लिए केंद्र सरकार द्वारा इंस्टीट्यूशन्स आॅफ ऐमिनन्स स्कीम के तहत प्रदत्त फंड का इस्तेमाल किया जाएगा। इस योजना के तहत देश के दस अग्रणी सार्वजनिक संस्थानों को एक हजार करोड़ रुपये तक की राशि रिसर्च और डेवलपमेंट के लिए दी जाने वाली है।
यह प्रस्ताव दो वजहों से सर्वथा अनुचित दिख रहा है: एक, ऐसे वक्त में जब तमाम सार्वजनिक विश्वविद्यालय के फंड में कटौती हो रही है और उन्हें अपने जरूरी खर्चे भी पूरे करने में जबरदस्त दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, उस समय ऐसे वायवीय मसले पर फंड दिए जा रहे हैं, जिस पर पहले भी काफी अध्ययन हो चुके हैं। दूसरे, लगभग एक सदी पहले डॉ. अम्बेडकर की अगुआई में आधुनिक समय में हुए पहले दलित विद्रोह में मनुस्मृति का बाकायदा एक सार्वजनिक समारोह में दहन किया गया था (25 दिसम्बर 1927) जब डा अम्बेडकर ने उसे ‘प्रतिक्रांति का सुसमाचार’घोषित किया था। तत्कालीन मुंबई प्रांत के महाड में संपन्न इस सत्याग्रह में सूबे के विभिन्न भागों से वहां पहुंचे हजारों दलितों और अन्य न्याय प्रेमियों ने हिस्सा लिया था। इस सत्याग्रह के 23 साल बाद जब भारत के संविधान को देश की जनता को सौंपा जा रहा था, तब संविधान की मसविदा समिति के प्रमुख डॉ. अम्बेडकर ने ऐलान किया था कि इसे अपनाने के साथ ‘मनु का शासन समाप्त हो गया है।’
अभी पिछले साल की बात है जब दिल्ली उच्च अदालत की न्यायाधीश सुश्री प्रतिभा सिंह ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मनुस्मृति की तारीफ करके विवाद को जन्म दिया था। ‘जातिवाद और वर्गवाद’ को बढ़ावा देने के लिए उनकी तीखी आलोचना हुई थी। दरअसल फिक्की द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि मनुस्मृति महिलाओं को सम्मानजनक दर्जा देती है।’ यह सोचना मासूमियत की पराकाष्ठा होगी कि वाराणसी की इस अग्रणी यूनिवर्सिटी से जुड़े अकादमिक मनुस्मृति की अंतर्वस्तु या उससे जुड़े असंख्य विवाद आदि को लेकर परिचित नहीं होंगे, वह इस बात को लेकर स्मृतिलोप का शिकार हो गए होंगे कि संविधान मसविदा समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर ने इस किताब का सार्वजनिक दहन क्यों किया था या क्या कहा था? और 21वीं सदी की तीसरी दहाई में जबकि दुनिया भर में शोषित उत्पीड़ितों में एक नई रैडिकल चेतना का संचार हुआ है, जबकि ब्लैक लाइवस मैटर जैसे आंदोलनों ने विकसित मुल्कों के सामाजिक ताने-बाने में एक नई सरगर्मी पैदा की है, उस वक्त़ अतीत के स्याह दौर की याद दिलाती इस किताब की प्रयोज्यता अर्थात एप्लीकेबिलिटी की बात करना, दुनिया में भारत की क्या छवि बनाएगा?
निस्संदेह, मनुस्मृति की प्रयोज्यता की खोज का यह प्रयास एक तरह से न केवल भारत में सामाजिक समानता एव उत्पीड़न विरोध के लिए जारी तमाम आंदोलनों को एक तरह से अवैध साबित करता है, उनको निरर्थक साबित करता है तथा साथ ही मनुस्म्ति को नए सिरेसे सैनिटाइज्ड/साफ ढंग से पेश करने की कवायद को नई वैधता प्रदान करता है।
निश्चित यह पूरी योजना संघ परिवार के हिंदुत्व वर्चस्ववाद के व्यापक चिंतन से मेल खाती है। आजादी के बाद जब संविधान का मसविदा बन रहा था तब इन्हीं ताकतों ने हर कदम पर उसका विरोध किया था। व्यक्तिगत पसंदगी/नापसंदगी की बात अलग आखिर मनुस्मृति के प्रति समूचे हिंदुत्व ब्रिगेड में इस किस्म का सम्मोहन क्यों दिखता है? समझा जा सकता है कि मनुस्मृति का महिमामंडन जो ‘परिवार’ के दायरों में निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है उससे दोहरा मकसद पूरा होता है। आज ऐसे आलेख, पुस्तिकाएं यहां तक किताबें भी मिलती हैं जो मनुस्मृति के महिमामंडन के काम में मुब्तिला दिखती हैं।
सौजन्य : Dainik janwani
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