JNU में गूंजी ‘रोहित वेमुला एक्ट’ की मांग
”रोहित वेमुला और वो छात्र जो बहुजन,दलित पहचान के साथ जब Academia ( शिक्षा या शोध का क्षेत्र) में आते हैं, तो उनके लिए पहले ही बहुत सी चुनौतियां होती है जिसकी वजह से वो यहां तक नहीं आ पाते। लेकिन जो यहां तक पहुंच जाते हैं ये सोच कर कि हम यहां पढ़ेंगे, यहां हमें बौद्धिक बल मिलेगा, तो आप यहां भी आकर हमारे आत्मविश्वास को तोड़ोगे?
इसे दर्द कह लीजिए, बेबसी कह लीजिए या फिर गुस्सा। ये JNU के उस छात्र की गहरी बातें थीं जो रोहित वेमुला के लिए निकाले गए एक मार्च का हिस्सा थे। ये छात्र आगे कहता है-
”माना जाता है कि Academia ( शिक्षा या शोध का क्षेत्र) Casteless होना चाहिए, लेकिन कितना Casteless है ये हमें पता है, रोहित वेमुला जैसे छात्रों के साथ जो होता है उससे पता चलता है कि ये विश्वविद्यालय जातिवादी अड्डा हैं। यहां आकर हमें ना सिर्फ़ बौद्धिक ज्ञान पाना होता है बल्कि caste system से भी लड़ना होता है, जबकि ऊंची जाति से आने वाले छात्रों के पास एक प्रिविलेज है कि उन्हें जाति से नहीं लड़ना होता।
हमारी मांग है कि संसद में ‘रोहित वेमुला एक्ट’ लाया जाए। कहा जाता है कि Academia में जाति आधारित भेदभाव नहीं है लेकिन हम चाहते हैं कि इस एक्ट की मदद से उसे हाईलाइट किया जाए। और ऐसे मुद्दों पर बात की जाए”
ये छात्र जब मुझसे बात कर रहा था तो उसके हाथ में एक स्लोगन वाला पोस्टर था और उसपर लिखा था –
”विश्वविद्यालय आपका अखाड़ा नहीं है”
देशभर के विश्वविद्यालय पिछले कुछ एक सालों से जिन वजहों से चर्चा में रहते हैं उससे तो यही लगता है कि वाक़ई विश्वविद्यालयों को पढ़ाई से ज्यादा धर्म-जाति, भेदभाव और शोषण का अड्डा बना दिया गया है। जिसका खामियाजा सिर्फ़ और सिर्फ़ छात्रों को उठाना पड़ रहा है।
JNU में रोहित की याद में मार्च निकाला गया
दिल्ली की बेहद सर्द रात में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय का कैंपस रोहित वेमुला की याद में नारों से गूंज उठा। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के दलित पी.एचडी स्कॉलर रोहित वेमुला की 7वीं पुण्यतिथि पर JNU में कुछ कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। इनमें से एक मार्च Birsa Ambedkar Phule Student’s Association ( BAPSA ) की तरफ से बुलाया गया था। ये मार्च JNU के गंगा ढाबा से शुरू होकर चंद्रभागा होस्टल तक गया।
ऐसा लग रहा था एक अर्से बाद JNU कैंपस में छात्रों का एक हुजूम किसी के लिए इतनी बुलंद आवाज़ में नारे लगा रहा था। ये मार्च भले ही BAPSA की तरफ से बुलाया गया था लेकिन इसमें दूसरे छात्र संगठनों के छात्रों के अलावा कैंपस में मौजूद उन छात्रों ने भी हिस्सा लिया जिनका किसी भी संगठन से रिश्ता नहीं था। ये वो छात्र थे जो रोहित वेमुला के साथ हुई नाइंसाफी के ख़िलाफ़ नारे लगा रहे थे।
इस दौरान हर उस वजह के ख़िलाफ़ नारे लगाए गए जो रोहित की मौत के ज़िम्मेदार थे, हर उस ओहदे, सोच के खिलाफ नारे लगे जिनकी वजह से आज भी विश्वविद्यालयों में छात्रों को भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है।
”हमें ये समझना पड़ेगा कि ये किसी एक रोहित वेमुला की बात नहीं है, सारे छात्रों की बात है, जो First generation learners हैं यहां तक पहुंचे पाए हैं, उनके हक की लड़ाई है उसमें सभी को शामिल होना चाहिए, ये सामाजिक न्याय की बात है”
बुलंद आवाज़ में रोहित वेमुला के लिए जमा हुआ इन छात्रों ने जल्द से जल्द रोहित वेमुला एक्ट को लागू करने की मांग की।
क्या है रोहित वेमुला एक्ट?
रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद कैंपसों में जातिगत भेदभाव को ख़त्म करने के लिए निर्भया एक्ट की तर्ज पर रोहित एक्ट की मांग की गई थी। ताकि कैंपसों में जातिगत भेदभाव को खत्म करने के लिए एक मज़बूत क़ानून बने।
रोहित वेमुला की मौत को सात साल हो गए लेकिन कुछ सवाल हैं जो आज भी जस के तस बने हुए हैं और उनमें सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आख़िर रोहित की मौत का जिम्मेदार कौन था? कुछ ऐसे ही सवाल खड़े किए दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर लक्ष्मण यादव ने।
JNU में पब्लिक मीटिंग का आयोजन भी हुआ
JNUSU की तरफ से भी एक पब्लिक मीटिंग बुलाई गई थी। जिसका नाम था ”Discrimination in Higher Educational Institutions and the need for institutional Mechanisms” इस पब्लिक मीटिंग में DU प्रोफेसर डॉ. लक्ष्मण यादव के साथ ही JNU के प्रोफेसर डॉ. प्रदीप शिंदे ने शिक्षा, आरक्षण, नई शिक्षा नीति (NEP) और देश में जातिगत भेदभाव और उसका संस्थानों पर क्या असर है जैसे मुद्दों पर लंबी बातचीत की।
इस पब्लिक मीटिंग में प्रोफेसर लक्ष्मण यादव ने ओम प्रकाश वाल्मीकि की एक कहानी ‘घुसपैठिए’ का ज़िक्र करते हुए कहा कि
”जब पहली बार रिजर्वेशन से पहली जनरेशन के लोग गए तो ‘उस तबके’ के लोग उन्हें देखकर कहते थे घुसपैठिया आ गया है, रिजर्वेशन के लोगों को अपमानित करके इस देश का अपमान किया है इन जातिवादियों ने, इसलिए रोहित वेमुला को याद करते हुए हम एक साथ कई सवाल उठा रहे हैं
पहला सवाल – रोहित एक्ट का क्या हुआ ? कौन गुनहगार था? और अगर कोई गुनहगार नहीं था तो रोहित की संस्थानिक हत्या क्यों हुई? और उसके बाद वो हत्याएं रुकी क्यों नहीं?
दूसरा सवाल – जिन एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन से देश और दुनिया का भविष्य बदलता उसे आप बर्बाद करने पर क्यों तुले हैं?”
हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के दलित पी.एचडी स्कॉलर रोहित वेमुला की मौत को भले ही 7 साल हो गए लेकिन क्या देश में दलितों के हालात में कोई सुधार हुआ है? क्या देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में हालात पहले से बेहतर हुए हैं? क्या हैं आज JNU, AMU, BHU जैसे उच्च शिक्षा संस्थानों में हालात ?
इन सवालों के जवाब यक़ीनन चौंकाने वाले नहीं लगते, देश में शिक्षा के नाम पर जैसा खिलवाड़ चल रहा है उसे पूरी दुनिया देख रही है। दलितों के अधिकार की लड़ाई लड़ते लड़ते रोहित दुनिया से चला गया। और जाते-जाते उसने अपने आख़िरी ख़त में लिखा –
”मेरा जन्म मेरे लिए एक घातक हादसा है”
एक वाक्य में रोहित वेमुला ने अपनी ज़िन्दगी के दर्द का सार बयां कर दिया। लेकिन हैरानी की बात तो ये है कि आज भी हमारे विश्वविद्यालयों में जातिगत भेदभाव के आरोप सामने आ रहे हैं। पर बजाए इनको ख़त्म करने के देश में जिस तरह से जाति पर आधारित राजनीति बढ़ती जा रही है वो अपने आप में निराशा से भर देने वाला है।
हमारी JNU की एक और पी.एचडी छात्रा से बात हुई जिन्होंने आरोप लगाया कि JNU में भी जब पी.एचडी में एडमिशन होता है तो यहां वायवा (viva) में किस तरह से एससी, एसटी ओबीसी या फिर अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव होता है। उन्होंने कहा कि इन छात्रों को बहुत कम नम्बर दिए जाते हैं। उन्होंने बताया कि यहां तक सुनने में आता है कि मुसलमान छात्रों से वायवा में यहां तक पूछा जाता है कि ”आपके लिए तो AMU और जामिया जैसी यूनिवर्सिटी है तो आप यहां क्यों आए हो?”
इस छात्रा की बात बेहद डरा देने वाली है, लेकिन क्या कोई रास्ता है जिससे हमारे विश्वविद्यालयों में इस तरह से भेदभाव को ख़त्म किया जा सकता है?
संविधान को बचाना है
इस पब्लिक मीटिंग में JNU के प्रोफेसर डॉ. प्रदीप शिंदे ने ऐसे दौर में सबसे अहम बात पर ज़ोर दिया उन्होंने कहा कि इस वक़्त संविधान को बचाने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि इस देश को बनाने वाले लोग इस तरह के ख़तरे को जानते थे इसलिए उन्होंने हमारे संविधान में वंचित और ज़रूरतमंद लोगों के राजनीतिक अधिकारों के बारे में लिखा।
प्रोफेसर शिंदे की बात वाजिब है और शायद इस वक़्त की सबसे बड़ी ज़रूरत भी यही है कि संविधान रहेगा तो देश और उसके उन नागरिकों के अधिकार भी रहेंगे जो उन्हें किसी व्यक्ति विशेष का मोहताज नहीं बनाते बल्कि ये उनके अधिकार हैं।
सौजन्य : Newsclick
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