एक तीर से तीन शिकार विपक्ष कितना तैयार?
इक्कीस जुलाई को तय हो जाएगा कि देश का अगला राष्ट्रपति कौन होगा। उससे पहले देश के इस सर्वोच्च पद के लिए 18 जुलाई को चुनाव होगा जिसके लिए बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए ने द्रौपदी मुर्मू को और विपक्ष ने यशवंत सिन्हा को उम्मीदवार बनाया है। सीधी लड़ाई इन्हीं दोनों के बीच होनी है।
दोनों सदनों में एनडीए की मजबूती को देखकर द्रौपदी मुर्मू का पलड़ा इतना भारी दिख रहा है कि भारतीय गणराज्य को अगला राष्ट्रपति आदिवासी समुदाय से मिलना अब महज औपचारिकता दिख रही है।
देश की राजनीति में जिनकी थोड़ी-बहुत भी दिलचस्पी है, वो जानते होंगे कि द्रौपदी मुर्मू का नाम ऐसा है, जिनके साथ देश में कई नई परंपराओं की शुरुआत हुई है। 2015 में, जब वो झारखंड की राज्यपाल नियुक्त की गई, तो वह झारखंड में इस पद को संभालने वाली पहली महिला बनीं। वे अपने गृह राज्य ओडिशा की राज्यपाल बनने वाली पहली आदिवासी महिला भी रही हैं। अब वे भारत के शीर्ष संवैधानिक पद के लिए उम्मीदवार के रूप में चुनी जाने वाली पहली आदिवासी महिला बन गई और अगर वह राष्ट्रपति चुनी जाती हैं, तो ‘सर्वप्रथम’ वाला एक और मुकाम हासिल कर लेंगी।
‘सौभाग्य’ की शुरुआत
इस लिहाज से राष्ट्रपति पद पर द्रौपदी मुर्मू का चयन भारतीय राजनीति में एक ‘सौभाग्य’ की शुरुआत भी होगी, लेकिन क्या यह आदिवासी समुदाय के उस दुर्भाग्य को खत्म कर सकेगा जिसने आज तक उन्हें मुख्यधारा की राजनीति से दूर रखा है? इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जिस देश में शहीद वीर नारायण सिंह, बिरसा मुंडा, अल्लुरी सीताराम राजू, रानी गाइदिन्ल्यु, टीका मांझी, सिद्धू मुर्मू और कान्हू मुर्मू के रूप में स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने वाले आदिवासी नेताओं की एक समृद्ध विरासत रही है, आज आजाद देश में उन्हीं के वंशज मुख्यधारा की राजनीति में ‘मोहरों’ की तरह उपयोग किए जाने के लिए अभिशप्त हैं। कुछ दोष राजनीति का है, कुछ उन नेताओं का भी है जिनका उत्थान सामाजिक घटना नहीं बनकर निजी फायदे तक सीमित रह गया। जो ऊंचे ओहदों तक पहुंचे भी, उनकी ताजपोशी सामान्य तौर पर रस्मी ही रही।
ऐसे में द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी को भी शक की निगाह से देखा जा रहा है। सवाल उठ रहा है कि उनका चयन प्रतीकात्मक है, या इसके गहरे सामाजिक निहितार्थ हैं? बेशक, यह कुछ लोगों को प्रतीकात्मक प्रतीत हो सकता है, लेकिन गणतंत्र के प्रमुख के तौर पर एक आदिवासी महिला के चयन के राजनीतिक महत्त्व को कम कर के नहीं आंका जा सकता है।
दशकों तक शारीरिक, यौन एवं आर्थिक और यहां तक कि भावनात्मक शोषण का शिकार बने आदिवासियों पर हुए अन्याय को देखते हुए राष्ट्रपति पद के लिए आदिवासी महिला नेता का चुनाव न्यायसंगत फैसला दिखता है क्योंकि यह राजनीति को समावेशी बनाने और सामाजिक न्याय प्राप्त करने की दिशा में एक बड़ा कदम साबित हो सकता है। द्रौपदी मुर्मू संथाल जातीय समूह से आती हैं, जो असम, त्रिपुरा, बिहार, छत्तीसगढ़, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में भी मौजूद है। साल 2017 में एनडीए ने इसी तरह रामनाथ कोविन्द को अपना उम्मीदवार बनाया था, जो उत्तर प्रदेश की सामाजिक पृष्ठभूमि में छोटे समझे जाने वाले कोली समुदाय से आने के बाद भी भारत के दूसरे दलित राष्ट्रपति बने। इस लिहाज से द्रौपदी मुर्मू का चयन एनडीए की विचार प्रक्रिया का ही एक हिस्सा दिखाई देता है।
सामाजिक आधार व्यापक करने के प्रयासों के अनुरूप
बेशक, इस निर्णय पर प्रधानमंत्री मोदी का व्यक्तिगत प्रभाव भी स्पष्ट तौर पर दिखता है क्योंकि यह बीजेपी के सामाजिक आधार का विस्तार करने और सामाजिक एकता और न्याय के आदशरे को प्राप्त करने के उनके अथक प्रयासों के अनुरूप है। यह अतिश्योक्ति नहीं, हकीकत है कि बीते कुछ वर्षो में बीजेपी ने अधिकांश सामाजिक समूहों और समुदायों के बीच अपने आधार का विस्तार किया है, और वंचित वर्ग को पूरे सम्मान और उनके सामाजिक गौरव के साथ मुख्यधारा में समायोजित किया है। इसके और भी कुछ स्पष्ट फायदे हैं। एक तो यह दूसरे राजनीतिक दलों को भी आदिवासियों को लेकर अपने रुख पर पुनर्विचार के लिए मजबूर करता है। दूसरा यह राजनीतिक विश्लेषकों को बीजेपी को नये चश्मे से देखने के लिए भी प्रेरित करता है, जिसे वे अभी तक ब्राह्मण-बनियों जैसी उच्च जातियों की पार्टी के नाम से ही संबोधित करते रहे हैं।
बीजेपी को कितना फायदा?
फिर सवाल उठता है कि द्रौपदी मुर्मू के चयन में बीजेपी का चुनावी फायदा कितना है? इतना कि उसे मोदी का मास्टरस्ट्रोक तक कहा जा रहा है। मुर्मू आदिवासी हैं, महिला हैं, और गरीब पृष्ठभूमि से भी हैं। राजनीति में यह एक तीर से तीन शिकार वाला मामला है। पहला, इस फैसले से सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए के वगरे खासकर महिला सशक्तिकरण के बीजेपी के दावे को और विसनीयता मिलेगी, दूसरा, चुनावी हाशिए पर खड़े लोगों के बीच सामाजिक आधार व्यापक और सुदृढ़ होने से पार्टी की राष्ट्रीय छवि मजबूत होगी, तथा तीसरा और चुनावी राजनीति के हिसाब से महत्त्वपूर्ण यह कि इससे विपक्षी एकता में सेंधमारी आसान होगी।
किंतु यह सब कुछ वैचारिक ज्यादा दिखता है। जमीन पर राजनीतिक नफे-नुकसान के प्रभाव का आकलन कैसे होगा? क्या नफा केवल बीजेपी का और नुकसान विपक्ष का होगा?
बीजेपी ने हाल के वर्षो में दो महत्त्वपूर्ण आदिवासी राज्यों को खोया है- छत्तीसगढ़ और झारखंड। अगले साल छत्तीसगढ़ के साथ-साथ मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं, जहां आदिवासी आबादी काफी है। बीजेपी के लिए मौका है कि वो उस आदिवासी वोट को फिर से हासिल करे जो उसने जेएमएम और कांग्रेस जैसी पार्टयिों के हाथ गंवा दिया था। ओडिशा में भी पटनायक के बाद के परिदृश्य में आदिवासी वोट महत्त्वपूर्ण होंगे।
आरएसएस की पसंद
यह भी ध्यान रखना होगा कि आरएसएस ने तो पिछले राष्ट्रपति चुनाव में ही मुर्मू के नाम का प्रस्ताव कर दिया था। गणित यही था कि आदिवासी समुदायों के बीच उनकी सक्रियता का बीजेपी को फायदा मिल सकता है। लेकिन उस समय दिल्ली में सरकार बनाने के लिए उत्तर प्रदेश की सियासी अनिवार्यता के मद्देनजर दलित वोट आकर्षित कर मायावती और बीएसपी को कमजोर करने के लिए आरएसएस की ‘पसंद’ को दरकिनार कर रामनाथ कोविन्द का चयन किया गया। वहीं राजनीतिक लाभ इस बार आरएसएस की पसंद का मान रखने की बड़ी वजह बना है।
इतना तो स्पष्ट है कि द्रौपदी मुर्मू की साख पर संदेह या सवाल नहीं किया जा सकता। उन्हें सामने रखकर बीजेपी-एनडीए सरकार ने एक बार फिर विपक्ष पर अपनी चतुर राजनीतिक कुशाग्रता स्थापित की है क्योंकि मुर्मू की नियुक्ति देश में आदिवासी और महिला मतदाताओं को सफलतापूर्वक लुभाएगी और दुनिया में भारत की छवि प्रगतिशील देश की बनाएगी।
राजनीतिक मजबूरियों के कारण ही सही, उनके विरोध से विपक्ष को सियासी नुकसान पहुंचना तय है। यशवंत सिन्हा के नाम से विपक्ष की गोलबंदी राष्ट्रपति चुनाव जीतने से ज्यादा राज्य सभा और महाराष्ट्र एमएलसी चुनावों और अब महाराष्ट्र में तख्तापलट के बीच विपक्षी दलों को एकजुट करना है। अगर विपक्ष इस कसौटी पर भी खरा नहीं उतर पाता है, तो देश में अगली सरकार किसकी बनेगी, इसके लिए 2024 का इंतजार भी जरूरी नहीं रह जाएगा।
उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ
सौजन्य : Samaylive
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