विलुप्त होने की कगार पर त्रिपुरा की कारबोंग जनजाति, बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण मुश्किल हुआ जीवन
त्रिपुरा में हलम समुदाय की एक उप-जनजाति कारबोंग अब विलुप्त होने की कगार पर है. विशेषज्ञों ने सोमवार को बताया कि इस जनजाति के केवल 250 लोग हैं, जो पश्चिम त्रिपुरा और धलाई जिलों में रहते हैं. उप-जनजाति के विशेषज्ञ हरिहर देबनाथ ने कहा, ‘माणिक्य शासकों ने कारबोंग लोगों को शिक्षित करने और उनके लिए शिक्षकों की व्यवस्था करने की कोशिश की थी, लेकिन यह सफल साबित नहीं हुआ.
स्वायत्त जिला परिषद ने 1989 में कारबोंगपारा गांव में एक प्राथमिक विद्यालय की स्थापना की थी. लेकिन इसने काम करना 1993 में शुरू किया था. देबनाथ ने बताया कि विद्यालय में तीन शिक्षकों की नियुक्ति की गई थी और 15 छात्रों को स्कूल में भर्ती कराया गया था, लेकिन उनमें से ज्यादातर बच्चों ने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी. पश्चिम त्रिपुरा जिले के बरमूरा रेंज के चंपक नगर में एक आदिवासी बस्ती में बसे कारबोंग उप-जनजाति के लगभग 40 से 50 परिवार हैं. जबकि 10-15 परिवार धलाई जिले में रहते हैं.
बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण मुश्किल हुआ जीवन
शिक्षण संस्थानों, स्वास्थ्य देखभाल और पीने के पानी जैसी सुविधाओं की कमी के कारण इन परिवारों का जीवन मुश्किल हो गया है. समुदाय के एक बुजुर्ग रबीमोहन कारबोंग ने कहा, ’60 से 70 परिवारों के मुश्किल से 250 लोग कारबोंग जनजाति के बचे हैं. अंतर्जातीय विवाह, गरीबी और उचित शिक्षा की कमी के कारण हमारी आबादी तेजी से घट रही है.’ आदिवासी बुजुर्गों के मुताबिक, कारबोंग जनजाति के लोगों की संख्या में सालों से कमी देखी जा रही है. अन्य सभी जनजातियों से अलग भाषा होने के बावजूद कारबोंग को एक उप-जनजाति माना जाता है, इसलिए भारत की जनगणना उन्हें अलग से नहीं गिनती है.
1940 की गजट अधिसूचना के अनुसार, त्रिपुरा में 19 आदिवासी समूह हैं, जिनमें कारबोंग समुदाय को हलम में शामिल किया गया है. विशेषज्ञों ने कहा कि हाल ही में उन्हें केंद्र द्वारा अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया है. लुप्तप्राय ‘कारबोंग’ अपनी भाषा के माध्यम से अन्य स्वदेशी आदिवासी समूहों से खुद को अलग करते हैं, जो त्रिपुरा के अधिकांश आदिवासी समूहों की भाषा कोकबोरोक से अलग है और ये सभी हिंदू धर्म को मानते हैं.
साभार : टीवी 9 भारत वर्ष
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