गाजीपुर के शेरपुर की दलित बस्ती में अगलगी के बाद मातम, रमावती की आखिरी चीखों के साथ राख हुए सपने!

गाजीपुर। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के शेरपुर की दलित बस्ती में 30 नवंबर 2024 की सुबह जैसे ही आग की लपटें उठीं, इस शांत इलाके की जिंदगी हमेशा के लिए बदल गई। ठंड के इस मौसम में जहां लोग सुबह की हलचल में जुटे थे, वहीं अचानक लगी इस आग ने 14 परिवारों के आशियाने और उनके सपनों को जलाकर राख कर दिया।
वहीं आग में 45 वर्षीय रमावती देवी की झुलसकर दर्दनाक मौत ने पूरे गांव को गमगीन कर दिया। अपनी झोपड़ी से सामान निकालने की कोशिश में गई रमावती को सिलेंडर के तेज धमाके ने बाहर निकलने का मौका तक नहीं दिया। उनकी मौत ने न केवल उनके परिवार को, बल्कि पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया है।
बस्ती में मातम पसरा हुआ है। लोग इतने गहरे सदमे में हैं कि किसी के सवालों का जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं। रमावती का परिवार टूट चुका है। उनकी झोपड़ी, जो इस बस्ती की जली हुई 24 झोपड़ियों में से एक थी, अब सिर्फ राख का ढेर है। उनका पति लक्ष्मण और तीन बच्चों-सुनीता, चंपा और गोलू-की जिंदगी अब अंधकार में घिर गई है।
शेरपुर की दलित बस्ती में खाक हुए सपने
गाजीपुर के भावरकोल इलाके के शेरपुर की नई बस्ती यहां विस्थापित परिवार झोपड़ी डालकर रहते हैं। सुबह गांव के लोग खेत में मिर्च तोड़ने गए थे। उस समय बस्ती के अधिकांश लोग खेतों में काम करने गए थे। सुबह 9.45 बजे धुआं उठता देख लोग गांव की तरफ दौड़ पड़े। इधर रमावती देवी (45) सामान निकलने के लिए झोपड़ी में घुस गई। इसी दौरान झोपड़ी में रखा सिलिंडर तेज आवाज के साथ फट गया। रमावती झोपड़ी के अंदर थीं और आग की तेज लपटों में घिर गईं। जब तक लोग आग बुझाने का प्रयास करते, झोपड़ी में रखा गैस सिलेंडर तेज धमाके के साथ फट गया। धमाके ने आग को और भयंकर बना दिया, जिससे रमावती को बाहर निकलने का कोई मौका नहीं मिला।
इस हादसे में 14 परिवारों की 24 झोपड़ियां जलकर राख हो गईं। गृहस्थी का सामान, बच्चों की किताबें, और जीवन जीने के साधन सबकुछ आग की भेंट चढ़ गए। इन परिवारों के लिए अब सिर्फ ठंड का डर नहीं, बल्कि भूख और बेबसी की लड़ाई भी है।
खुले आसमान के नींचे जिंदगियां
इस हादसे में न केवल जिंदगियां उजड़ गईं, बल्कि खुले आसमान के नीचे आने वाले परिवारों के सपनों का भी अंत हो गया। घटना की शुरुआत रमावती देवी की झोपड़ी से हुई, जहां अज्ञात कारणों से आग लगी। रमावती के पति प्रह्लाद, जो अपनी झोपड़ी से कुछ ही दूर एक खेत में काम कर रहे थे, जब घटना स्थल पर पहुंचे, तो सब कुछ खत्म हो चुका था। उनकी आंखों में आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। “मैं उसे बचा नहीं पाया। वो चीखती रही, और मैं सिर्फ देखता रहा। “राशन से हमारा पेट भर जाएगा, लेकिन हमारे बच्चों के सिर पर छत कौन देगा” प्रह्लाद ने रोते हुए कहा।
शेरपुर नई बस्ती के दलित परिवार पिछले दो दशक से खाना-बदोश की जिंदगी जी रहे हैं। पहले इन की जिंदगी खुशहाल हुआ करती थी। ये लोग पहले सेमरा गांव में रहते थे, लेकिन कई बरस पहले गंगा कटान के चलते इनके मकान और खेत नदी में समा गए थे। रहने का कोई ठौर नहीं मिला तो प्रशासन ने इन्हें मोहम्मदाबाद के एक मिडिल स्कूल में कमरे में रहने के लिए जगह दे दी।
बाद में वहां से उन्हें मोहम्मदाबाद सब्जी मंडी में रहने के लिए भेज दिया गया। स्थाई आवास नहीं होने के कारण वो भटकते रहे। गांव के पूर्वी छोर पर बसी थी बस्ती। इस बस्ती के नजदीक गंगा रहती हैं। दलितों का कहना था कि गंगा है फिर उनकी झोपड़ियां गंगा में समा जाएंगी।
दलितों के बच्चे नहीं पढ़ पा रहे थे। कुछ बरस पहले इनके लिए प्रशासन ने आठ बीघा जमीन आवंटित किया। यह जमीन भी गंगा के किनारे थी। दलित बस्तियों के लोग दोबारा गंगा के तीरे अपना ठिकाना बनाने के लिए तैयार नहीं थे। बाद में प्रशासन ने उनके साथ सख्ती बरती और जबरिया उन्हें शेरपुर गांव में गंगा के तीरे रहने रहने के लिए मजबूर कर दिया।
दलित समुदाय के लोग ढाई साल पहले 35 लोग शेरपुर गए और आवंटित जमीन पर झोपड़ी बनाकर रहने लगे। हालांकि हर साल बारिश में उन्हें धुकधुकी लगी रहती थी कि कहीं उनका आशियाना गंगा फिर न निगल जाए। प्रशासन ने दलितों को जमीन तो दी, लेकिन आवास नहीं दिया। नतीजा इनके बच्चे पढ़ नहीं पा रहे थे। दलितों के बच्चे मिर्च और टमाटर तोड़ने तोड़कर अपने परिवार की आजीविका को चलाते हुए जवान हो रहे थे।
घटना के बाद रोती -विलखती दलित समुदाय की महिलाएं
घटना के बाद मौके पर पहुंचे एसडीएम मनोज पाठक ने पीड़ित परिवारों को तिरपाल, कंबल और 15 दिन का राशन उपलब्ध कराया। उन्होंने भरोसा दिलाया कि सरकार इन परिवारों के पुनर्वास और उनके बच्चों की शिक्षा के लिए कदम उठाएगी।
उजड़े घर, खत्म होते सपने
श्रीकांति, जिनकी झोपड़ी के साथ-साथ उसमें रखा गैस सिलेंडर भी आग की चपेट में आ गया, अपनी टूटी आवाज में कहती हैं,
“हमने पूरी जिंदगी मेहनत करके जो जोड़ा, वो सब कुछ खत्म हो गया। मेरे बच्चों के पास अब न खाना है, न कपड़े। ठंड में खुले में कैसे रहेंगे? सरकार हमारी मदद कब करेगी?” सविता की आंखों में आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे। वह कहती हैं, “मेरे पति मजदूरी करते हैं। जो कुछ भी हमारे पास था, वो सब जलकर राख हो गया। कल रात बच्चों को भूखा सुलाया। ठंड में खुले आसमान के नीचे अब कैसे जिएंगे?”
घटना के बाद मौके पर पहुंचे एसडीएम मनोज पाठक ने पीड़ित परिवारों को तिरपाल, कंबल और 15 दिन का राशन उपलब्ध कराया। उन्होंने भरोसा दिलाया कि सरकार इन परिवारों के पुनर्वास और उनके बच्चों की शिक्षा के लिए कदम उठाएगी।
राहत सामग्री मिलने के बाद भी इन परिवारों की समस्याएं खत्म होती नहीं दिख रहीं। बस्ती की बुजुर्ग महिला चिंता देवी कहती हैं, “हमारे पास अब कुछ नहीं बचा। बच्चों को स्कूल भेजना तो दूर, उनके लिए खाना जुटाना भी मुश्किल हो गया है। हम सरकार से मांग करते हैं कि हमें स्थायी रहने की जगह और पुनर्वास मिले।”
राहत सामग्री का वितरण
पीड़ित परिवारों का कहना है कि अस्थायी राहत से उनकी समस्या का समाधान नहीं होगा। “हमें एक स्थायी घर चाहिए। यह त्रिपाल और राशन कितने दिन चलेंगे? ठंड बढ़ रही है, और हमारी परेशानियां भी,” सुदामा ने कहा।
दलित बस्ती के लोग सरकार से स्थायी पुनर्वास और आर्थिक मदद की गुहार लगा रहे हैं। इस हादसे ने न केवल उनकी संपत्ति को छीन लिया है, बल्कि उनके जीवन को नए सिरे से संघर्ष के लिए मजबूर कर दिया है। यह हादसा एक चेतावनी है कि वंचित तबकों की सुरक्षा के लिए तत्काल और दीर्घकालिक उपाय किए जाएं। अब देखना यह है कि प्रशासन कब और कैसे इन लोगों की मदद करता है और क्या इनकी जिंदगी को पटरी पर लाने के लिए ठोस कदम उठाए जाते हैं।
शेरपुर नई बस्ती की यह घटना उन विस्थापित परिवारों की कहानी है, जो गंगा कटान के बाद यहां आए थे और अब एक बार फिर अपनी जिंदगियों को पटरी पर लाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह हादसा प्रशासन और समाज के लिए एक चेतावनी है कि गरीब और वंचित तबकों की सुरक्षा और स्थायित्व सुनिश्चित करने की दिशा में गंभीर प्रयास किए जाएं।
दलितों का संघर्ष: पहले कटान, अब आग
शेरपुर की यह दलित बस्ती पहले से ही गंगा कटान की मार झेल चुकी है। इन परिवारों को सेमरा गांव से विस्थापित किया गया था। प्रशासन ने इन्हें शेरपुर में गंगा किनारे जमीन तो दी, लेकिन स्थायी घर बनाने की कोई व्यवस्था नहीं की। हर साल बारिश में बाढ़ का डर और अब इस आगजनी ने इनकी जिंदगियां पूरी तरह बदल दी हैं। पीड़ित परिवारों की मांग है कि उन्हें सुरक्षित स्थान पर स्थायी आवास दिया जाए। “हम हर बार त्रासदी का शिकार क्यों बनते हैं? क्या दलित होना हमारी गलती है?” सुदामा ने पूछा, जिनकी झोपड़ी भी जल गई। यह हादसा केवल आगजनी नहीं, बल्कि प्रशासन और समाज की उदासीनता का प्रतीक है।
शेरपुर की इस दलित बस्ती के लोग अपनी चीखों को अनसुना करने वालों से बस यही सवाल पूछ रहे हैं—”हम कब तक भटकते रहेंगे? हमारी जिंदगियां कब तक ऐसी त्रासदियों का शिकार होती रहेंगी?” यह घटना एक चेतावनी है कि वंचित तबकों की सुरक्षा और पुनर्वास को प्राथमिकता दी जाए। रमावती की मौत और इन परिवारों की बेबसी एक अपील है कि हम इंसानियत को जिंदा रखें और इनकी मदद के लिए ठोस कदम उठाएं।
इन दलित परिवारों की मांगें बेहद मामूली हैं। ये सिर्फ इतना चाहते हैं कि इन्हें स्थायी घर मिले, जहां ये चैन की सांस ले सकें। इनके बच्चों को शिक्षा का अधिकार मिले। क्या यह बहुत बड़ा सपना है? यह हादसा न केवल इन परिवारों के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए एक चेतावनी है कि अगर हमने इनकी आवाज को नहीं सुना, तो हमारी संवेदनशीलता और मानवता पर सवाल उठना तय है।
“दलितों की इस चीख को अनसुना मत कीजिए”
भावरकोल क्षेत्र के आंचलिक पत्रकार राम विलास पांडेय कहते हैं, “जिनके घरों में उजाला नहीं, उनका सूरज बनने का वक्त आ गया है। मैं इस घटना को केवल एक खबर की तरह नहीं देख रहा हूं। यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम इन पीड़ित परिवारों को सिर्फ राहत सामग्री नहीं, बल्कि स्थायी समाधान दें। मैं प्रशासन से अपील करता हूं कि इन परिवारों को तत्काल मुआवजा, सुरक्षित आवास और उनके बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
रमावती देवी की मौत सिर्फ एक महिला की मौत नहीं है; यह उस व्यवस्था का काला सच है, जो गरीबों और वंचितों को उनके हाल पर छोड़ देती है। रमावती का परिवार और इस बस्ती के अन्य 14 परिवार, जो आज खुले आसमान के नीचे बैठे हैं, उनके सपने, उनके अरमान और उनका संघर्ष सब कुछ राख में बदल गया।
“मैं पूछना चाहता हूं-क्या ये लोग इंसान नहीं हैं? क्या इनकी जिंदगी की कोई कीमत नहीं है? जब गंगा कटान ने इन्हें बेघर किया, तब भी सरकार ने इन्हें स्थायी आवास देने के बजाय झोपड़ियों में बसाकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। और अब, जब आग ने इनकी झोपड़ियों को जलाकर राख कर दिया, तो क्या इन्हें फिर से त्रिपाल और थोड़े-से राशन के सहारे छोड़ दिया जाएगा? “
“आज शेरपुर की बस्ती की राख में इन परिवारों की चीखें दबी हुई हैं। यह आग हमारे लिए एक चेतावनी है कि हमें इनकी जिंदगी में उजाला लाने के लिए अपनी भूमिका निभानी होगी। रमावती की मौत को एक आंकड़ा मत बनने दीजिए। इसे एक बदलाव की शुरुआत बनाइए। इन्हें उनका हक दिलाने के लिए हम सबको एकजुट होना होगा। मैं समाज के हर उस संवेदनशील नागरिक से भी अपील करता हूं कि वे इन परिवारों की मदद के लिए आगे आएं। हमें समझना होगा कि ये सिर्फ दलित नहीं, बल्कि हमारे समाज का वह हिस्सा हैं, जिनकी भलाई से ही हमारी मानवता की पहचान होती है।”
गाजीपुर के भांवरकोल क्षेत्र के शेरपुर की दलित बस्ती में हुए इस हृदयविदारक हादसे ने मेरी आत्मा को झकझोर दिया है। मैंने अपने जीवन में कई हादसे देखे हैं, लेकिन यह घटना सिर्फ एक आगजनी नहीं, बल्कि इन दलित परिवारों की दशकों से चली आ रही उपेक्षा और अनदेखी की कहानी है।
शेरपुर नई बस्ती की यह घटना केवल आगजनी नहीं, बल्कि इन गरीब परिवारों की बेबसी और अनदेखी का प्रतीक है। ठंड में खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर ये लोग सरकार और समाज से सिर्फ सहानुभूति नहीं, बल्कि ठोस समाधान की उम्मीद कर रहे हैं।
सौजन्य: जनचौक
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