बलात्कार और पॉक्सो मामले, क्या फास्ट ट्रैक कोर्ट से जल्द मिलता है न्याय, जानिए क्या कहते हैं आंकड़े?
“अगर इसी रफ्तार से फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई चलती रही तो दिल्ली में पॉक्सो मामलों में न्याय मिलने में 27 साल लग जाएंगे, बिहार में 26, उत्तर प्रदेश में 22, बंगाल में 25 और अरुणाचल में 30 साल लगेंगे। अब यहां समझना जरूरी है कि सरकार ने ये आंकड़ा जारी नहीं किया है, लेकिन अगर साधारण गणित से हिसाब जोड़े तो पेंडिंग केसज में पूरी सुनवाई होने तक इतने साल निकल जाएंगे।”
कोलकाता रेप-मर्डर केस में केंद्र सरकार ने सोमवार (26 अगस्त) को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की चिट्ठी का जवाब दिया। केंद्र ने ममता सरकार को कहा कि बंगाल में कुल 123 फास्ट ट्रैक कोर्ट शुरू किए गए, लेकिन उनमें अधिकतर बंद हैं। इससे पहले ममता ने 22 अगस्त को पीएम मोदी को चिट्ठी लिखी थी। इसमें उन्होंने कहा था कि देश में रोज रेप के 90 मामले सामने आते हैं। इसे रोकने के लिए सख्त कानून बनना चाहिए। केंद्र सरकार की ओर से ममता की चिट्ठी का जवाब महिला विकास एवं परिवार कल्याण मंत्री अन्नपूर्णा देवी ने दिया।
ममता ने पीएम को लिखा था- रेप जैसे मामलों में 15 दिन में केस खत्म हो। पश्चिम बंगाल की सीएम ने मोदी को लिखा- मौजूदा डेटा बताता है कि देश में रोज 90 रेप केस हो रहे हैं। ज्यादातर मामलों में रेप पीड़ित की हत्या हो जाती है। यह ट्रेंड भयावह है। यह समाज और देश के आत्मविश्वास और विवेक को झकझोर देता है। यह हमारा कर्तव्य है कि महिलाएं सुरक्षित महसूस करें। इसके लिए जरूरी है कि केंद्र सरकार एक कड़ा कानून बनाए, जिसमें इस तरह के जघन्य अपराध करने वाले को कड़ी सजा का प्रावधान हो। ऐसे मामलों को फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलाया जाना चाहिए। पीड़ित को जल्द न्याय मिल सके, इसके लिए जरूरी है कि ट्रायल 15 दिन में पूरा कर लिया जाना चाहिए।
अब, इससे पहले, देश में फास्ट ट्रैक कोर्ट में चल रहे और लंबित मामलों की स्थिति को जाने कि क्या फास्ट ट्रैक कोर्ट में जल्द न्याय मिल पा रहा है या आंकड़े क्या कहते हैं, यह जानते हैं कि फास्ट ट्रैक कोर्ट क्या है? और इसमें न्याय कैसे मिलता है?।
क्या है फास्ट ट्रैक कोर्ट, कैसे करता है काम
देश में फास्ट ट्रैक कोर्ट की शुरूआत महिला अपराध में शामिल दोषियों को देने से हुई थी। महिलाओं बालिकाओं की सुरक्षा को सरकार ने आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम-2018 के जरिए रेप के अपराधियों के लिए मौत की सजा जैसे कड़ी सजा का प्रावधान किया है। पीड़ितों को तत्काल न्याय देने के लिए ही अक्टूबर-2019 से न्याय विभाग ने यौन अपराधों से संबंधित मामलों की जल्द सुनवाई के लिए देश भर में फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट्स (FTC) के साथ विशिष्ट पॉक्सो न्यायालयों की स्थापना के लिए एक केंद्र प्रायोजित योजना लागू की है। हर फास्ट ट्रैक कोर्ट में एक न्यायिक अधिकारी और 7 सदस्य कर्मचारियों का प्रावधान किया गया है। अभी देश के कुल 31 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 30 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को इस योजना में शामिल किया जा चुका है।
कैसे होती है केस की निगरानी?
मीडिया रिपोर्ट्स व सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, मई 2024 तक 30 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 410 विशिष्ट पॉक्सो कोर्ट के साथ ही 755 एफटीएससी (फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट्स) काम कर रहे हैं। इनमें 2,53,000 से अधिक मामलों को निपटाया गया है। इस योजना के मजबूत कार्यान्वयन के लिए न्याय विभाग की ओर से इन न्यायालयों के आंकड़ों की मासिक आधार पर निगरानी की जाती है। इसके लिए एक ऑनलाइन निगरानी पोर्टल भी तैयार किया गया है। इसके अलावा हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल और राज्यों के पदाधिकारियों के साथ नियमित रूप से समीक्षा बैठक भी की जाती है।
कैसे काम करता है फास्ट ट्रैक कोर्ट?
फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने का फैसला संबंधित राज्य की सरकार अपने यहां के हाईकोर्ट से चर्चा के बाद करती है। संबंधित हाईकोर्ट किसी भी फास्ट ट्रैक कोर्ट के लिए समय सीमा तय कर सकता है कि सुनवाई कब तक पूरी की जानी है। इसके आधार पर फास्ट ट्रैक कोर्ट यह तय करता है कि किसी मामले को रोज सुना जाएगा या कुछ दिनों के अंतराल पर सुनवाई होगी। सभी पक्षों को सुनने के बाद फास्ट ट्रैक कोर्ट तय समय में अपना फैसला सुनाता है। फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई और फैसले की रफ्तार काफी तेज होती है। इतना ही नहीं कई मामलों में तो फास्ट ट्रैक कोर्ट ने एक सप्ताह के भीतर ही दोषियों को सजा सुनाई है। लेकिन क्या यह पर्याप्त और पूरा सच है?
क्या है फास्ट ट्रैक कोर्ट का सच?
कोलकाता रेप कांड से देश आक्रोशित है। एक महिला डॉक्टर के साथ जिस तरह से हैवानियत की हदें पार की गईं, उसने सभी को विचलित कर रखा है। इस बीच देश के कई कोनों से ऐसी मांग उठ रही है कि इस मामले की सुनवाई अब फास्ट ट्रैक कोर्ट में होनी चाहिए। केंद्र सरकार का दावा है कि बंगाल सरकार फास्ट ट्रैक कोर्ट खोलने के मामले में उदासीन है। यहां तक कहा गया है कि राज्य में सिर्फ 123 फास्ट ट्रैक कोर्ट है, वहां भी ज्यादातर बंद हो चुके हैं।
खैर, इस राजनीति से हटकर देखें तो बड़ा मुद्दा यह है कि क्या सही में फास्ट ट्रैक कोर्ट में ‘फास्ट सुनवाई’ हो पाती है या हो पा रही है। क्या सही में फास्ट ट्रैक कोर्ट किसी सामान्य अदालत की तुलना में जल्द फैसला सुनाते हैं?, आंकड़े देखें तो इन फास्ट ट्रैक कोर्ट्स से जैसी उम्मीद रखी गई, उतना डिलीवर यह करते नहीं दिखते।
सामान्य अदालत और फास्ट ट्रैक में नहीं रह गया अंतर
इंडियन एक्सप्रेस समूह के जनसत्ता न्यूज पोर्टल पर प्रकाशित खबर के अनुसार, 2018 में NCRB का एक आंकड़ा सामने आया था, जिसमें वैसे तो फास्ट ट्रैक कोर्ट में 28 हजार से ज्यादा ट्रायल चले, लेकिन वहां 78 फीसदी मामलों को पूरा होने में एक साल से ज्यादा का वक्त लग गया। 42 प्रतिशत ऐसे मामले रहे जहां तीन साल तक लोगों को न्याय नहीं मिल पाया, वही 17 फीसदी मामलों में केस खत्म होने की समय सीमा 5 साल से भी ज्यादा रही। यह नहीं भूलना चाहिए कि फास्ट ट्रैक कोर्ट में महिला अपराधों को लेकर तो सुनवाई होती ही है, वहां पॉक्सो से जुड़े मामलों में सबसे ज्यादा सुनवाई रहती है। लेकिन उस डिपार्टमेंट में अभी तक फास्ट ट्रैक कोर्ट का प्रदर्शन निराशाजनक ही माना जाएगा।
पॉक्सो केस: 3 प्रतिशत मामलों में ही सजा
जनसत्ता न्यूज पोर्टल के अनुसार, पिछले साल इंडियन चाइल्ड प्रोटेक्शन फंड (ICPF) ने एक विस्तृत रिपोर्ट बनाई थी। उस रिपोर्ट एनसीआरबी, कानून विभाग से लेकर कई अहम विभागों से आंकड़े जुटाए गए। उस रिपोर्ट में जो खुलासे हुए, उन्होंने फास्ट ट्रैक कोर्ट की कलई खोलकर रख दी। उस जांच में पता चला कि देश में पॉक्सो के 2 लाख 43 हजार मामले लंबित चल रहे हैं। मात्र 3 प्रतिशत मामलों में ही सजा हो पाई है, यानी कि कनविक्शन रेट काफी कम चल रहा है। 2023 को लेकर एक आंकड़ा सामने आया जहां बताया गया कि 2 लाख 68 हजार 38 मामले दर्ज तो हुए, लेकिन सजा सिर्फ 8909 केस में हुई।
यही स्पीड रही तो.. दिल्ली में 27, यूपी में 22 साल…
अगर इसी रफ्तार से फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई चलती रही तो दिल्ली में पॉक्सो मामलों में न्याय मिलने में 27 साल लग जाएंगे, बिहार में 26, उत्तर प्रदेश में 22, बंगाल में 25 और अरुणाचल में 30 साल लगेंगे। अब यहां ये समझना जरूरी है कि सरकार ने खुद यह आंकड़ा जारी नहीं किया है, लेकिन अगर साधारण गणित से हिसाब लगाए तो पेंडिंग केस में पूरी सुनवाई होने तक इतने साल निकल जाएंगे।” इसी से अब जानकार मानते हैं कि देश में महिलाओं के खिलाफ जितने अपराध हो रहे हैं, जिस तरह से मासूम बच्चियों को भी शिकार बनाया जा रहा है, वर्तमान में बने फास्ट ट्रैक कोर्ट्स में इतने मामलों की सुनवाई संभव नहीं।
इसी से जानकारों द्वारा कहा जा रहा है कि जब तक बड़े स्तर पर इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं हो जाता, जब तक न्याय प्रक्रिया को और ज्यादा सरल नहीं कर दिया जाता, जल्द न्याय मिलने की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसी वजह से कोलकाता मामले में सिर्फ इस बात पर बहस नहीं हो सकती कि फास्ट ट्रैक कोर्ट क्यों नहीं बने, सवाल यह है कि जो बने भी हैं, वहां न्याय मिलने की रफ्तार इतनी धीमी क्यों और कैसे चल रही है?
सौजन्य :सबरंग इंडिया
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