Ramnami: राम के सबसे बड़े दीवाने लेकिन नहीं चाहिए मंदिर, भयंकर पीड़ा सहकर भी जीभ से लेकर पलक तक पर गुदवाते हैं राम का नाम

रामनामी संप्रदाय के लोगों की आस्था राम की किसी मूर्ति या मंदिर में नहीं है। वह राम भक्ति के लिए अपने शरीर के प्रत्येक अंग पर ही राम का नाम गुदवा लेते हैं। वे अपने दिन की शुरुआत भगवान राम के भजन गाते हुए करते हैं। सभी के घर में रामायण महाकाव्य होता है। घर की दीवारों पर भी राम लिखा होता है। इस संप्रदाय के ज्यादातर लोग खेती करते हैं और बचे हुए समय में राम नाम जपते हैं। रामनामी संप्रदाय के लोग शुद्ध शाकाहारी होते हैं। वह नशा से दूर रहते हैं। दहेज जैसी परम्परा के कट्टर विरोधी होते हैं।
राम चर्चा में हैं। अयोध्या में राम के नाम पर भव्य मंदिर का निर्माण जारी है। पहले चरण का काम पूरा हो चुका है। 22 जनवरी को मंदिर में रामलला (राम का बाल रूप) की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा होनी है। समारोह के लिए 8000 वीआईपी मेहमान अयोध्या पहुंचने वाले हैं। दूसरी तरफ आम हिंदू अपने शरीर पर राम और राम मंदिर का टैटू बनवा, अपनी भक्ति दिखा रहे हैं। इस चकाचौंधचौं के बीच 100 साले पहले अपने शरीर को राम का मंदिर बना चुके रामनामी संप्रदाय की चर्चा कम हो रही है।
छत्तीसगढ़ के रामनामी संप्रदाय के लोगों की आस्था राम की किसी मूर्ति या मंदिर में नहीं है। वह राम भक्ति के लिए अपने शरीर के प्रत्येक अंग पर ही राम का नाम गुदवा लेते हैं। वे अपने दिन की शुरुआत भगवान राम के भजन गाते हुए करते हैं। सभी के घर में रामायण महाकाव्य होता है। घर की दीवारों पर भी राम लिखा होता है। इस संप्रदाय के ज्यादातर लोग खेती करते हैं और बचे हुए समय में राम नाम जपते हैं।
कई लोग इस संप्रदाय को भक्ति आंदोलन का हिस्सा बताते हैं, तो कुछ इसे सामाजिक और दलित आंदोलन से जोड़ते हैं। इस संप्रदाय के आरंभ की कहानी और इसकी परंपरा अनोखी है। आइए इस संप्रदाय के बारे में विस्तार से जानते हैं:
मंदिर में नहीं जाने दिया तो शरीर को बना लिया मंदिर मध्य काल में भक्ति आंदोलन का असर छत्तीसगढ़ में भी व्यापक रहा। कई इतिहासकारों का दावा है कि रामनामी संप्रदाय की शुरुआत भक्ति आंदोलन से हुई थी। इसकी स्थापना छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के चारपारा गांव में 19वीं शताब्दी के मध्य में पैदा हुए दलित युवक परशुराम ने की थी।
मध्य भारत में सामाजिक आंदोलनों की शोधकर्ता विशाखा खेत्रपाल इसे 19वीं सदी के मध्य के सामाजिक-सांस्कृतिक मंथन की तरह देखती हैं। जिस तरह भक्ति आंदोलन से कबीरपंथी और सतनामी जैसे संप्रदायों की स्थापना हुई, वैसे ही रामनामी संप्रदाय भी निकला। खेत्रपाल मानती हैं कि इन आंदोलनों ने “मौजूदा राजनीतिक और धार्मिक संरचनाओं”ओं को चुनौती दी।
खेत्रपाल लिखती हैं, “एक स्थानीय किंवदंती के अनुसार, परशुराम को कुष्ठ रोग हो गया और इससे जुड़े सामाजिक कलंक के कारण, उन्होंने एक त्यागी के रूप में जीवन जीने का फैसला किया। इसी दौरान उनकी मुलाकात एक ऋषि से हुई जिन्होंने उन्हें आशीर्वाद दिया और रामायण पढ़ना जारी रखने को कहा। अगली सुबह परशुराम को पता चला कि उनके शरीर से बीमारी के सभी लक्षण गायब हो गए हैं और उनके सीने पर ‘राम-राम’ शब्द का टैटू दिखाई देने लगा।”
बीबीसी हिंदी में प्रकाशित आलोक पुतुल की एक रिपोर्ट में रामनामी समाज के राष्ट्री य अध्यक्ष मेहत्तरलाल टंडन का बयान मिलता है। वह बताते हैं, “मंदिरों पर सवर्णों ने धोखे से कब्जा कर लिया और हमें राम से दूर करने की कोशिश की गई। हमने मंदिरों में जाना छोड़ दिया, हमने मूर्तियों को छोड़ दिया। ये मंदिर और ये मूर्तियां इन पंडितों को ही मुबारक।”
रामनामियों ने उच्च जाति के भारतीयों को एक संदेश के रूप में अपने शरीर पर राम का नाम लिखा। वह यह बताना चाहते थे कि भगवान हर जगह हैं, चाहे किसी व्यक्ति की जाति या सामाजिक प्रतिष्ठा कुछ भी हो। 1910 में रामनामी समाज ने अपने कपड़ों और शरीर पर राम का नाम लिखने के अधिकार के लिए हिंदुओं की कई जातियों के साथ संघर्ष के बाद एक अदालती मामला भी जीता था।
समुदाय की परंपरा समुदाय में पैदा होने वाले बच्चों को अभी भी दो साल की उम्र तक अपनी छा ती पर राम नाम का गोदना (टैटू) गुदवाना होता है। समुदाय के वरिष्ठ सदस्य युवा सदस्यों को गो दने के लिए लकड़ी की सुइयों और कालिख से बनी काली स्याही का उपयोग करते हैं। यह प्रक्रिया अक्सर काफी दर्दनाक होती है। इस प्रक्रिया को पारंपरिक हिंदी शब्द गुड़ाई के बजाय अंकित कर्ण कहा जाता है – जिसका शाब्दिक अर्थ लेखन होता है। पूरे शरीर पर टैटू गुदवाने में दो सप्ताह से अधिक का
समय लगता है। इस संप्रदाय के प्रथाओं के अनुसार, रा मनामी शराब या धूम्रपान नहीं करते हैं। उन्हें प्रतिदिन “राम” नाम का जप करना होता है। इस संप्रदाय में सभी के साथ समानता और सम्मान के साथ व्यवहार करने का उपदेश दिया जाता है।
रामनामियों के गांवों के अधिकांश घरों की बाहरी और भीतरी दीवारों पर काले रंग से “राम-राम” लिखा होता है। लगभग हर रामनामी परिवार के पास हिंदू देवताओं की छोटी मूर्तियों के साथसाथ रामायण महाकाव्य की एक प्रति होती है।
राम का नाम न जले, इसलिए निधन के बाद रामनामी संप्रदाय के लोगों का शरीर जलाया नहीं जाता, उनके शव को दफनाया जाता है।तीन तरह के रामनामी रामनामी संप्रदाय में सिर से लेकर पैर तक राम नाम गुदवाने की परंपरा रही है। रामनामी जीभ,
तलवे और पलकों पर भी राम का नाम गुदवाते हैं। हालांकि विशेष रूप से तीन तरह के रामनामी होते हैं। पहला- जो सिर्फ माथे पर राम का नाम दो बार अंकित करवाते हैं, उन्हें शिरोमणि रामनामी कहा जाता है। दूसरा- कुछ लोग पूरे माथे पर राम राम अंकित करवाते हैं, उन्हें सर्वांग रामनामी कहा जाता है। तीसरा- पूरे शरीर पर राम नाम अंकित करवाने वालों को नखशिख
रामनामी कहा जाता है। संप्रदाय के लिए एक चुनौती यह है कि राम नाम का जो गोदना इनकी पहचान रही है, नई पीढ़ी उस पहचान को अपनाने में ही दिलचस्पी नहीं दिखा रही है। 1920 के दशक में परशुराम की मृत्यु के समय करीब 20,000 रामनामी थे। बाद में ये संख्या लाखों में पहुंची। लेकिन अब संख्या तेजी से गिरी है। युवा रामनामी अब पढ़ाई और काम की तलाश में दूसरे क्षेत्रों की यात्रा करते हैं, इसलिए आमतौर पर वह पूरे शरीर पर टैटू बनवाने से बचते हैं।
सौजन्य: जनसत्ता
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