अररिया में एक फैसले से पांच हज़ार आदिवासी-दलित हो जाएंगे बेघर
बिहार के अररिया जिले के रानीगंज प्रखंड की भोरा पंचायत स्थित बेलगच्छी वार्ड नंबर 1 और 2 में रहने वाले लोगों के चेहरे उदास हैं।
इन उदास चेहरों के पीछे अनुमंडल दंडाधिकारी, अररिया का एक फैसला है। यह फैसला विवादित ज़मीन पर रह रहे लोगों के खिलाफ आया है। फैसला अगर लागू होता है, तो लगभग पांच हज़ार लोग एक झटके में विस्थापन का शिकार हो जाएंगे।
क्या है पूरा मामला?
लगभग 350 एकड़ के मालिकाना हक का यह मामला 37 साल पुराना है। वर्ष 1986 में ज़मीनदर नसीमुद्दीन रानीगंज थाने में एक प्राथमिकी दर्ज कराते हैं। प्राथमिकी में दावा किया जाता है कि उक्त ज़मीनदार की ज़मीन पर कुछ लोगों ने गैर कानूनी कब्जा कर लिया है। जांच में पता चला कि यह कुछ लोग नहीं बल्कि लोगों का एक समूह है। इनमें रहने वाले आदिवासी, ऋषिदेव, पासवान और नोनिया जाति के लोग शामिल हैं। आमतौर पर इन समुदायों के पास बसने के लिए भी ज़मीन नहीं होती है। विवादित ज़मीन पर रह रहे ग्रामींणों का दावा है कि यह भूमि बिहार सरकार की है, हालांकि प्रशासन की जांच में यह दावा झूठा निकला।
उस वक्त स्थानीय प्रशासन ने विवादित भूमि पर कैंप कोर्ट किया तथा सभी काग़ज़ातों और दावों की जांच की। 20 जुलाई 1986 को प्रशासन ने ज़मीनदारों के पक्ष में फैसला सुनाया और शांति पूर्ण दख़ल कब्ज़ा घोषित किया। फैसले से नाराज़ ग्रामीणों ने सत्र न्यायालय में रिवीज़न दायर किया। सत्र न्यायालय ने इसको ख़ारिज कर दिया। फिर ग्रामीणों ने उच्च न्यायालय का रुख़ किया।
हाईकोर्ट के निर्देश पर अनुमंडल दंडाधिकारी ने सभी साक्ष्यों और गवाहों के अवलोकन के बाद जमीदार के पक्ष में फैसला सुना दिया। उच्च न्यायालय पटना के 7 सितंबर 1994 पारित आदेश में स्पष्ट निर्देश है कि अनुमंडल दंडाधिकारी अररिया दंड प्रक्रिया संहिता के धारा 145 के तहत पारित आदेश का पालन करें।
इस फैसले के बाद से ही यहां के लोगों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। यहां रह रहे ग्रामीणों का कहना है कि उनके पूर्वज आजादी के पहले यहां आए थे। जंगल झाड़ काटकर इस जगह को रहने लायक बनाया और यहां रहना शुरू किया था। ग्रामीणों की मानें, तो 1954 के सर्वे में उनके पूर्वज अशिक्षत होने के कारण यह ज़मीन अपने नाम नहीं करा सके, जिसका फायदा जमींदार को मिला।
क्या कहते हैं ग्रामीण?
विवादित भूमि पर रह रहे ग्रामीण इस फैसले से निराश हैं और सभी चिंतित भी हैं कि अब क्या होगा। ग्रामीणों में एक परिवार लक्खी मरांडी का भी है। इस फैसले से लक्खी भी परेशान हैं कि अब वह और उसका परिवार कहां जाएंगा। वह कहते हैं, “अब हम लोग कहां जाएं। हमारे पूर्वज यहीं पर रहते आ रहे हैं अब समझ में नहीं आ रहा है कि हम क्या करें और कहां जाएं।”
लक्खी ने सरकार से मांग की है कि उनके परिवार को सरकार रहने के लिए 10 डिसमिल और खेती के लिए एक एकड़ ज़मीन प्रदान करे।
वहां पर रहने वाले एक बुज़र्ग देवन बेसरा ने भी लक्खी द्वारा कही गई बातों को दोहराया और उन्होंने भी सरकार से रहने के लिए 10 डिसमिल और खेती के लिए एक एकड़ ज़मीन की मांग दोहराई।
देवन आगे कहते हैं, “हमारे बाप दादा यहीं पर रहकर गुजर गए। अब हमारा भी टाइम आ गया है। हम लोग कहीं नहीं जाएंगे। हम लोग यहीं रहेंगे। बुजुर्ग महिला राजमणि मुर्मू भी इस फैसले से चिंतित हैं। वह बताती हैं कि उनके पूर्वज यहीं पर वर्षों से रहे, अब ये लोग कहां जाएंगे। इन लोगों के लिए सरकार कुछ व्यवस्था करे वरना लोग बेघर हो जाएंगे।”
राजनीतिक दल भाकपा माले (लिबरेशन) की जिला सचिव राम विलास यादव इस मामले से करीब से जुड़े हैं। उन्होंने बताया कि यह जमीन 1985 से पहले सीलिंग में आती थी और सरकार सीलिंग मामले में हार गई। वर्ष 1986 में जमींदार की तरफ से केस किया गया और ग्रामीणों को हटाने का प्रयास भी किया गया। रामविलास यादव ने आगे कहा कि इस संघर्ष में 5 लोगों की हत्या भी की गई, लेकिन इसके लिए आदिवासियों को ही जिम्मेदर ठहराकर उनको फंसा दिया गया।
उन्होंने भी दूसरे ग्रामीणों की तरह सरकार से मांग की है कि इन लोगों को 10 डिसमिल जमीन रहने के लिए और एक एकड़ जमीन खेती के लिए दी जाए। उन्होंने कहा कि अगर दूसरे देश से शरणार्थी आते हैं, तो उनके लिए भी सरकार व्यवस्था करती है, लेकिन ये लोग तो भारत के ही नागरिक हैं, तो इनके साथ सरकार अन्याय क्यों कर रही है।
इस मामले में अंचलाधिकारी मनोज कुमार ने मीडिया को बताया कि अभी जमीन खाली कराने का आदेश हुआ है, लेकिन वहां रह रहे ग्रामीणों के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था होगी या नहीं, इसका निर्णय उच्च अधिकारियों द्वारा किया जाएगा।
विवादित भूमि पर दशकों से रहते आ रहे हजारों लोगों को वहां से हटाना प्रशासन के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होगा। पहले भी ग्रामीणों और ज़मीनदारों के बीच कई बार संघर्ष हो चुका है, और कई लोगों की जान तक जा चुकी है।
सौजन्य : Main media
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