इतिहास 1 जनवरी 18 18

आज के दिन यानी 1 जनवरी 1818 को भीमा कोरेगांव में पेश्वा की फौज के साथ हुए युद्ध में महार सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी ने शानदार विजय प्राप्त की थी। भीमा कोरेगांव की कहानी 205 साल पहले 1818 को हुए एक युद्ध की है। जब पेशवाओं की सेना महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में ईस्ट इंडिया की फौज से हार गई थी। ईस्ट इंडिया कंपनी को महार रेजीमेंट के सैनिकों की बहादुरी की वजह से यह जीत हासिल हुई थी। ऐसे में यह जगह पेशवाओं पर महारों यानी अनुसूचित जातियों की जीत के एक स्मारक के तौर पर स्थापित हो गई।
भारत देश में एक प्रचलित कहावत है ‘तेरे जैसे 56 देखे’ जैसा कि ऐतिहासिक घटनाओं से कहावतों का निर्माण होता है उसी तरह इस कहावत का निर्माण भीमा कोरेगांव के ऐतिहासिक युद्ध से हुआ है। जब महज 500 महार सैनिकों ने पेशवाओं के 28 हजार सैनिकों को धूल चटाई थी तब एक महार सैनिक के हिस्से 56 पेश्वा सैनिक आए थे।
भीमा कोरेगांव के ऐतिहासिक महत्व को समझने के लिए पहले हमें पेशवा के बारे में समझना पड़ेगा। पेशवा मूल रूप से छत्रपति (मराठा साम्राज्य के राजा) के अधीनस्थ के रूप में सेवा करते थे। छत्रपति संभाजी के मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य की कमान उनके भाई राजाराम के पास रही। 1700 में राजाराम की मृत्यु हुई और उनकी धर्मपत्नी ताराबाई ने अपने पुत्र शिवजी-2 के साथ मराठा साम्राज्य की कमान संभाली।
1707 में औरंगजेब की मृत्यु पश्चात में बहादुर शाह-1 ने छत्रपति संभाजी के पुत्र शाहूजी को रिहाई की कुछ शर्तों पर अपनी कैद से रिहा किया उसके तुरंत बाद शाहूजी ने मराठा सिंहासन का दावा किया और अपनी चाची ताराबाई और उसके बेटे को चुनौती दी। 1713 को शाहूजी जो कि मराठा साम्राज्य के छत्रपति बन चुके थे, ने बालाजी विश्वनाथ जो कि (चितपावन ब्राह्मण )थे, को पांचवां पेशवा (प्रधानमंत्री) घोषित किया, बाद में पेशवाओं का दौर शुरू हुआ और वे मराठा सम्राज्य के प्रमुख शक्ति केंद्र बन गए और छत्रपति एक शक्तिविहीन औपचारिकता मात्र का शासक रह गए जैसे आज के राष्ट्रपति होते है। मराठा साम्राज्य की पूरी कमान पेशवाओं के हाथों में आ गई और उन्होंने अपनी जातिवादी सोच के चलते महारों (दलित समाज में शामिल एक जाति जो महाराष्ट्र केंद्रित है) पर मनुस्मृति की व्यवस्था लागू कर दी, जिसके तहत उन्हें कमर पर झाड़ू और गले में मटका बांधने को कहा गया ताकि जब कोई महार रास्ते से चले तो उसके पैरों के निशान झाड़ू द्वारा मिटते रहें और वे थूंकना भी चाहे तो उन्हें अपने गले की मटकी में ही थूकना पड़े।
यह वही दौर था जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत पर अपना विस्तार करने में लगी हुई थी और उसके लिए उनको पेशवाओं को हराना बेहद जरुरी था और ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी रणनीति बना ली थी। उस वक्त महारों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ लड़ने के लिए पेशवाओं की सेना में भर्ती होने का आग्रह किया, जिसे पेशवाओं द्वारा अपमानित ढंग से ठुकरा दिया गया। यह बात जब अंग्रेजों को पता चली तो उन्होंने महार जाती के लोगों को समानता की शर्तों पर अपने साथ ले लिया और उन्हें अंग्रेजी सैना में भर्ती होने का न्योता दिया।
अब महार सेना अंग्रेजों के साथ थी और पेश्वा की सेना के साथ युद्ध तय हो गया। पुणे के पास भीमा नदी के तट पर उस दिन जो हुआ था, उसका सिर्फ राजनीतिक और रणनीतिक महत्व नहीं है। उस दिन उस मैदान में सिर्फ अंग्रेज और पेशवा नहीं लड़ रहे थे। वहां जातिवाद के खिलाफ भी एक महासंग्राम हुआ था। इस लड़ाई में अछूत माने जाने वाले महार जाति के सैनिकों ने जातिवादी पेशवाई को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद कर दिया। भारतीय समाज को लोकतांत्रिक और मानवीय बनाने में इस युद्ध ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया की 500 सैनिकों की एक छोटी कंपनी थी, जिसमें ज्यादातर सैनिक महार (दलित) थे, पेशवा शासक बाजीराव द्वितीय की 28,000 हजार की सेना थी। यह बात स्मरणीय है कि उन दिनों भयंकर सर्दियों के दिन थे। महार फौज 31 दिसंबर 1817 की रात में 25 मील पैदल चलकर कोरेगांव भीमा नदी के एक किनारे पहुंची थी। थके हारे लोगों ने भी एक बड़ी सेना के साथ युद्ध किया और पेश्वा की बड़ी सेना को महज 12 घंटे चले युद्ध में पराजित कर दिया था। कोरेगांव के मैदान में जिन महार सैनिकों ने लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की, उनके सम्मान में सन 1822 ई. में भीमा नदी के किनारे काले पत्थरों के रणस्तंभ का निर्माण किया गया, जिन पर उनके नाम खुदे हैं। इस घटना को देश भर के दलित अपने इतिहास का एक वीरतापूर्ण प्रकरण मानते हैं। इसीलिए दलित समुदाय के लोग भीमा कोरेगांव में हर साल बड़ी संख्या में जुटकर उन सैनिकों को श्रद्धांजलि देते हैं जिन्होंने पेशवा की सेना के खिलाफ लड़ते हुए अपने प्राण गंवाए थे। बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भी यहां पहुंचकर शहीदों को श्रद्धांजलि दी थी।
आज भी हर साल जब 1 जनवरी को दुनिया भर में नए साल का जश्न मनाया जाता है, उस वक्त अनुसूचित जाति समुदाय के लोग भीमा-कोरेगांव में जमा होते है। वो यहां ‘विजय स्तंभ’ के सामने अपना सम्मान प्रकट करते हैं।
भीमा-कोरेगांव अनुसूचित जातियों के सामाजिक आंदोलन के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि उनकी इस पहचान को लगभग मिटा दिया गया है लेकिन इससे उन्हें पता चलता है कि वो भी कभी योद्धा थे। आज दलित समाज अपनी पहचान को फिर से कायम करने की कोशिश में लगा है। उसकी इस कोशिश को विफल करने के लिए सवर्ण जातियों के लोग भी प्रयासों में जुटे हैं। इसका एक उदाहरण तब दिखाई देता है जब 2018 में भीमा कोरेगांव दिवस मनाया जा रहा था तब ऊंची जातियों के शरारती तत्वों ने गुंडागर्दी की और सरकार ने भी दलितों पर ही मुकदमे दर्ज किए और वक्ताओं को जेल में ठूंसा।
आज ही के दिन यानि 1 जनवरी 1890 को भारत के प्रसिद्ध राजनेता सम्पूर्णानन्द का जन्म हुआ था। ये वही सम्पूर्णानन्द हैं जिनकी मूर्ति बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में लगाई गई है और जिसका अनावरण 24 जनवरी 1978 को रक्षा मंत्री के रूप में बाबू जगजीवन राम द्वारा किया गया था। बाबू जी क्योंकि अछूत चमार थे इसलिए उदघाटन समारोह के बाद सम्पूर्णानन्द की मूर्ति को गंगाजल से शुद्ध किया गया था। जिन व्यक्तियों को मजबूरन बाबू जी से हाथ मिलाना पड़ा उन्होंने गंगाजल से स्नान करके खुद को शुद्ध किया था।
सौजन्य :दर्शन सिंह बजवा