साहित्यिक उत्सवों और दलित विमर्श के बीच ख्याति पाते लेखनी के महारथी

डॉ. आंबेडकर के धर्मांतरण आंदोलन में शरीक होने वाली अनेक महिलाओं ने आत्मकथाएं लिखीं और अपने खर्च से प्रकाशित कर अपने इतिहास का दस्तावेजीकरण कराया। उनमें बड़ी संख्या उन लेखिकाओं की थी, जिन्होंने पहली बार कलम पकड़ी थी।
भारतीय भाषायी लेखन में हिंदी की सृजनात्मकता पर हो रहा मंथन अभूतपूर्व है। संभवतः लंबे समय तक कोरोना महामारी के कारण दैहिक दूरियों की मजबूरियों से कलम का कर्तव्य प्रदर्शित नहीं हो पा रहा था। इसी महीने जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय के सेमिनार में ‘स्वाधीनता आंदोलन और राष्ट्रीय एकीकरण में हिंदी भाषा और साहित्य की भूमिका’ पर हुए विमर्श को पुराने प्रश्नों का नया जवाब कहा जा सकता है। इससे इतर हाल के महीनों में संपन्न हुए हिंदी पखवाड़ा से लेकर साहित्य अकादेमी का शिमला साहित्य उत्सव, झांसी में बुंदेलखंड लिटरेरी फेस्टिवल और इसी महीने मध्य प्रदेश में होने जा रहे ‘भोपाल साहित्य उत्सव’ के बीच पिछले महीने दिल्ली में संपन्न हुए ‘राजेन्द्र यादव स्मृति समारोह‘ के तौर पर हंस का ‘साहित्योत्सव‘ विविधता की दृष्टि से खास था।
वर्ष 1986 से हंस का जब पुनः प्रकाशन शुरू हुआ, तब लगभग आधा दशक तक इसमें दलित विमर्श को जगह नहीं दी गई थी। फिर नब्बे के दशक में एकाएक ऐसा क्या हुआ था, जिससे संपादक को विविधता आकर्षित करने लगी? हाशिये पर पड़े विमर्शों को केंद्र में लाने की इच्छा बलवती होने लगी? देश, काल, परिस्थिति पर गौर करें, तो 20वीं सदी के अंतिम दशक में मंदिर-मंडल का मुद्दा बेहद गर्म हो रहा था। डॉ. आंबेडकर के जन्म का शताब्दी वर्ष आ गया था। बसपा के बढ़ते प्रभाव को लगाम लगाने के लिए वीपी सिंह ने मंडल कमीशन लागू कर दिया था। डॉ. आंबेडकर को मरणोपरांत ‘भारत रत्न‘ दिया गया था। महाराष्ट्र सरकार ने केंद्र सरकार के साथ मिलकर डॉ. आंबेडकर के अंग्रेजी लेखन को दर्जन भर खंडों में प्रकाशित कर दिया था। हिंदी के दलित लेखकों का रचनात्मक साहित्य का दबाव बनने लगा था। वैसे में हंस के संपादक को लगा था कि साहित्य मंच पर भी दलितों का बहिष्कार रुकना चाहिए।
ऐसे ही, स्त्री विमर्श में जब वंचित-दलित स्त्री के विमर्श की बात हुई, तो तथाकथित कुलीनता का आग्रह रखने वाली कुछ सुविधाभोगी लेखिकाएं विरोध में आईं। प्रश्न उठने लगा कि देश, काल, परिस्थतियां संपूर्ण साहित्यिक पत्रकारिता के लिए एक जैसी थी, तो इससे इतर पत्रिकाओं में हाशिये के लेखन को केंद्र में लाने की आवश्यकता क्यों अनुभव नहीं हुई? याद रखना चाहिए कि, प्रकाशित न होने की स्थिति में लेखन मर जाता है। पठनीय न बन पाने या बहुसंख्य पाठकों तक संप्रेषित न हो पाने पर भी उसका कोई भविष्य नहीं होता।
तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी उपेक्षित समाजों की स्त्रियों ने अपने रचनात्मक अस्तित्व की रक्षा के लिए काफी संघर्ष किए हैं। मराठी में डॉ. आंबेडकर के धर्मांतरण आंदोलन में शरीक होने वाली महिलाओं ने अपने अनुभव अपनी भावी पीढ़ियों को अग्रसारित करने के उद्देश्य से आत्मकथाएं लिखीं और अपने खर्च से प्रकाशित कर अपने इतिहास का दस्तावेजीकरण कराया। उनमें बड़ी संख्या उन लेखिकाओं की थी, जिन्होंने पहली बार कलम पकड़ी थी और जिनके पास लेखन की कोई विरासत व कोई संस्कार नहीं था। एक शोध के अनुसार, यह संख्या दो सौ से ढाई सौ आत्मकथाओं के बीच थी। पर उन्हीं में से बेबी कांबले की जीवन हमारा, कौशल्या बैसंत्री की दोहरा अभिशाप और उर्मिला पवार की आयदान जैसी आत्मकथाएं प्रकाश में आईं।
मराठी में शांताबाई कृष्णाजी कांबले की आत्मकथा माज्या जल्माची चित्तरकथा को सर्वाधिक ख्याति मिली। बीती सदी के आठवें दशक में ही इसके अंग्रेजी, फ्रेंच और कन्नड़ अनुवाद आ गए थे। कमलेश्वर ने मुंबई दूर दर्शन पर ‘कथाचक्र’ के तहत इसी आत्मकथा को दिखाया था। आत्मकथा की विषयवस्तु में यथार्थपरक सत्य हो, तो अलग भाषा भी बाधा नहीं बनती। तमिल लेखिका बामा की आत्मकथा कुर्कू इसका जीवंत उदाहरण है। इस महिला ने जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ तमिल साहित्य में जोरदार आंदोलन खड़ा किया, जिसका अनुभव आत्मकथा में दर्ज किया। ऑक्सफोर्ड से अनुवाद आने के बाद गैर दलित पाठकों में भी बामा अपरिचित लेखिका नहीं रह गई थीं।
अमेरिका में मेट्रो में काम कर रही आंध्र प्रदेश के अस्पृश्य वर्ग में जन्मी सुजाता गिडला की आत्मकथा अभी केवल अंग्रेजी में एण्टस एमांग एलिफेंट (हाथियों के बीच चीटियां) ही छपी है, किंतु अपने कथन की स्पष्टता और प्रामाणिकता के कारण यह चर्चा में है। रामचंद्र गुहा ने अपने 70 साल और पचास किताबें लेख में सुजाता गिडला का उल्लेख किया है। लेखिका पी शिवकामी भी दक्षिण से ही हैं और आईएएस की सेवा से त्यागपत्र देकर लेखन कार्य में लगी हैं। इन्होंने अपनी लेखन यात्रा उपन्यास लेखन से आरंभ की है। उनके लेखन से उनके विशद अध्ययन का भी पता चलता है। हिंदी के ज्यादातर आत्मकथाकारों में इसका अभाव दिखाई पड़ता है।
हालांकि अच्छे प्रकाशन का संकट हिंदी लेखिकाओं ने भी झेला है। सुशीला टाकभौरे लंबे समय तक अपनी रचनाएं अपने वेतन से छपवाती रहीं और पाठकों-समीक्षकों को मुफ्त वितरित करती रही थीं। अब भी कुछ आत्मकथाएं लेखिकाओं ने अपने खर्च से प्रकाशित कराई हैं। इनमें से कुछ को तो प्रकाशक भी इतने लापरवाह मिले हैं, जिन्होंने भाषा के प्रवाह की परवाह नहीं की और प्रूफ की अशुद्धियां भी दूर नहीं की। जबकि विषय वस्तु की दृष्टि से ये आत्मकथाएं पठनीय और अनुकरणीय बन सकती थी। इसके बावजूद निराशा की कोई वजह नहीं है।
सौजन्य : Amar ujala
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