12 मार्च को किसान नेता कोलकाता में रैली कर भाजपा को हराने की अपील करेंगे ! भाजपा विरोधी राजनैतिक दिशा के साथ किसान-आंदोलन अगले चरण में !

आंदोलन के 97वें दिन संयुक्त किसान मोर्चा ने 2 मार्च की अपनी बैठक में एक अत्यंत महत्वपूर्ण एलान करते हुए विधान सभा चुनावों में भाजपा के खिलाफ राजनैतिक मोर्चा खोल दिया है और विधान सभा चुनावों में जनता से उसे दंडित करने की अपील किया है ।
बेशक, इस घोषणा के साथ सुस्पष्ट भाजपा विरोधी राजनैतिक दिशा लेकर किसान-आंदोलन अगले चरण में प्रवेश कर गया है। इसका देश की आने वाले दिनों की राजनीति पर दूरगामी असर पड़ेगा।
वैसी ही दूरगामी महत्व की दूसरी घोषणा के अनुसार किसान और मजदूर मिलकर 15 मार्च को पूरे देश में “कारपोरेट विरोधी दिवस ” और ” निजीकरण विरोधी दिवस ” मनाएंगे । 26-27 नवम्बर की संयुक्त कार्रवाई के बाद, जिस दिन किसानों ने राजधानी दिल्ली में दस्तक दिया था, यह किसानों और मजदूरों के कारपोरेटविरोधी ज्वाइंट एक्शन का अगला चरण होगा ।
इसी बीच डीजल,पेट्रोल, गैस के तेजी से बढ़ रहे दाम, बढ़ती मंहगाई आग में घी का काम कर रहे हैं और बेरोजगारी टॉप ट्रेंड कर रही है। पिछले दिनों GST के खिलाफ उसे काला कानून करार देते हुए
व्यापारियों का राष्ट्रव्यापी बंद हुआ। बैंक कर्मियों की हड़ताल हुई।
1 मार्च को बिहार की राजधानी पटना में 19 लाख नौकरियों के नीतीश सरकार के वायदे को पूरा करने की मांग लेकर AISA-RYA के नेतृत्व में छात्र-युवाओं का जुझारू मार्च हुआ, जिसका नेतृत्व और समर्थन करते हुए कई युवा भाकपा (माले ) विधायक भी घायल हुए । इसी बीच इलाहाबाद जो देश में प्रतियोगी छात्रों का प्रमुख केंद्र है, वहाँ हजारों प्रतियोगी युवक-युवतियों के प्रदर्शन पर योगी सरकार की पुलिस ने बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज किया और उनके नेताओं को गिरफ्तार किया गया। इलाहाबाद युवाओं के लिए सुसाइड ज़ोन बनता जा रहा है , जहां एक महीने के अंदर 10 के आसपास युवक-युवतियां बेरोजगारी के भयानक दबाव में खुदकशी कर चुके हैं। ठीक इसी तरह BHU के छात्रों को गिरफ्तार किया गया जो विश्वविद्यालय खोलने और पढ़ाई की मांग कर रहे थे। खतरनाक आयाम ग्रहण करती बेरोजगारी के खिलाफ देश में बड़े छात्र-युवा आंदोलन की सुगबुगाहट है । ये युवक-युवतियां किसान आंदोलन का समर्थन कर रही हैं क्योंकि इन सबका निशाना एक ही है- मोदी राज की करपोरेटपरस्त नीतियां जो सारे संकटों के मूल में हैं।
समाज के सभी तबके आज ऐतिहासिक किसान आंदोलन से प्रेरणा लेकर अपने अपने सवालों पर आंदोलन की राह पर बढ़ते जा रहे हैं और इनके बीच एक लड़ाकू एकता उभर रही है, जो आने वाले दिनों में नई उम्मीदों के द्वार खोल सकती है।
किसान-आंदोलन की राजनैतिक सम्भावनाओं को लेकर तरह तरह के कयास लगाए जा रहे हैं ।
किसान आन्दोलन से सहानुभूति रखने वाले कुछ बुद्धिजीवी सशंकित हैं कि इस आंदोलन से मोदी को फायदा होगा। उनका यह अनुमान इस मूल्यांकन पर आधारित है कि यह धनी और जाट किसानों का आंदोलन है, इनके खिलाफ ग्रामीण समाज के अन्य तबके मोदी-भाजपा के साथ गोलबंद हो जाएंगे और इससे उनका नेट फायदा होगा।
पर यह निष्कर्ष superficial है और अंकगणितीय समझ पर आधारित है, जो गहराई में आंदोलन के प्रभाव और उसके रसायन-शास्त्र को न समझने से पैदा होता है। सच्चाई यह है कि आंदोलन के गढ़ों में सभी किसानों की यह आम अनुभूति बन चुकी है, चाहे वे जिस भी श्रेणी या समुदाय के हों, कि ये कानून मोदी सरकार कारपोरेट के फायदे के लिए ले आयी है और हमारी जमीन खतरे में है, वह छिन जाएगी। जिन्हें अब तक सरकारी मंडी में MSP पर खरीद का लाभ मिला है, उनके अंदर यह भय है कि इससे अब वे वंचित हो जाएंगे और मध्य उत्तर प्रदेश, पूर्वांचल या देश के जिन इलाकों के किसान अब तक MSP से वंचित हैं, उनके अंदर पंजाब-हरियाणा के किसानों की समृद्धि से यह आकर्षण पैदा हुआ है कि MSP को कानूनी दर्जा मिल जाय तो उनकी भी स्थिति बेहतर हो जाएगी।
बाराबंकी और बस्ती जैसे जिलों के कुर्मी किसान बहुल इलाकों में किसान पंचायत की सफलता ने यह साफ संकेत दिया है तमाम कृषक जातियां जो पिछले दिनों भाजपा के साथ चली गयी थीं, वे किसान-आंदोलन के प्रवाह में उससे दूर छिटक सकती हैं। सच तो यह है कि पहचान-आधारित ( Identity- based ) जो वैमनस्य ग्रामीण समाज में हाल के वर्षों में मौजूद थे, उदाहरण के लिए पश्चिम उत्तर प्रदेश में हिन्दू व मुस्लिम समुदाय के बीच, उनको किसान आंदोलन ने मिटाने का काम किया है।
किसानों की सभी श्रेणियों को तो जाति-समुदाय की
पहचान के पार इस आंदोलन ने एकताबद्ध किया ही है, ग्रामीण समाज में मजदूरों, व्यापारियों, नौकरीपेशा लोगों को भी प्रभावित किया है, जिनका जीवन अनेक रूपों में कृषि-अर्थव्यवस्था से जुड़ा रहता है। यहाँ तक कि शहरी मजदूरों, गरीबों, मध्यवर्ग के संवेदनशील हिस्सों तक यह संदेश पहुंचता जा रहा है कि चंद कारपोरेट घरानों के हाथ खाद्यान्न के असीमित भंडारण की इजारेदारी (monopoly ) कायम होने के बाद मंहगाई आसमान छूने लगेगी।
कुछ बुद्धिजीवियों का यह सुझाव है कि आंदोलन को खुलकर राजनीतिक स्वरूप में सामने आना चाहिए, वरना इसका कोई सार्थक राजनीतिक प्रतिफलन नहीं होगा । आंदोलन या तो विपक्ष की राजनीति के साथ खुलकर खड़ा हो अथवा किसान आंदोलन स्वयं एक भाजपा-विरोधी राजनीतिक मंच का एलान करे। दरअसल, ऐसा कहने वालों के मन में अतीत के आंदोलनों, विशेषकर 74 के जेपी आंदोलन या फिर अन्ना आंदोलन जैसे मॉडल हैं, जब छात्रों-युवाओं के सवालों से शुरू हुए आंदोलनों या भ्रष्टाचार, तानाशाही, लोकपाल के लिए कानून जैसे मुद्दों से शुरू हुए आंदोलनों से विपक्षी दल जुड़ गए, नए दलों का जन्म हुआ और आंदोलन का अंत सत्ता परिवर्तन में हो गया।
पर, अतीत के बड़े आंदोलनों से, जो सत्ता परिवर्तन तक गए, इस आंदोलन का एक बुनियादी फर्क है। यह पहली बार हो रहा है कि उत्पादन के बुनियादी ढांचे और उस पर मालिकाने का प्रश्न, बेसिक स्ट्रक्चर का सवाल इस आंदोलन की चिंताओं के केंद्र में है। इसके पहले के बड़े आंदोलन हमेशा superstructural सवालों पर, भ्रष्टाचार जैसे सवाल पर, या फिर नए कानून बनाने के लिए, मसलन लोकपाल के लिए हुए।
किसान नेताओं की समझ बिल्कुल सही है कि आंदोलन के बुनियादी ढांचागत और नीतिगत सवालों को विपक्षी पार्टियों के भरोसे, उनके ऊपर दांव लगा कर बिल्कुल नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि वे सब मूलतः उन्हीं नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के समर्थक हैं, जिनसे ये कृषि कानून निकले हैं, वरना सत्ता परिवर्तन हो जाय तब भी, उनके आंदोलन का वही हस्र होगा जो अतीत के ऐसे आंदोलनों का हुआ था। बेशक, आंदोलन की राजनीतिक परिणति होनी चाहिए, सत्ता परिवर्तन जिसका एक परिणाम होगा, पर उसके साथ ही आर्थिक नीतियों में रैडिकल बदलाव होना चाहिए और किसान की खुशहाली, रोजगार, आमदनी को केंद्र में रखकर कृषि-विकास का नया नीतिगत ढांचा सामने आना चाहिए। विपक्ष किसान-आंदोलन के साथ खड़ा हो रहा है, सत्ता के दमन का विरोध कर रहा है,यह स्वागतयोग्य है और स्वाभाविक है, पर इसका लक्ष्य राजनैतिक लाभ और सत्ता परिवर्तन के लिए आंदोलन के उपयोग तक सीमित हो सकता है। जबकि किसान आंदोलन का लक्ष्य इसके आगे तक जाता है, वह नीतिगत बदलाव के बिना अधूरा है।
इसीलिए इस बार यह जनांदोलन एक नए गतिपथ पर बढ़ रहा है, इससे अतीत के किसी मॉडल का अनुकरण करने की मांग करना अनैतिहासिक होगा और इसके साथ अन्याय होगा। इस पर कृत्रिम ढंग से अतीत का कोई मॉडल impose करना इसके स्वाभाविक विकासक्रम को बाधित करेगा और काउंटर-प्रोडक्टिव साबित हो सकता है।
दरअसल, आंदोलन का स्वाभाविक विकास हो रहा है। कृषि-क्षेत्र पर कारपोरेट कब्जे के खिलाफ खुला वर्गीय टकराव तो पहले से आंदोलन की मूल अन्तर्वस्तु है ही, अब यह क्रमशः मोदी-भाजपा सरकार के विरुद्ध अधिकाधिक खुली राजनैतिक दिशा की ओर बढ़ता जा रहा है।
जाहिर है, कृषि के कारपोरेटीकरण पर मोदी सरकार ने जिस तरह दांव लगा दिया है और किसानों के आक्रोश और नफरत का जिस तरह अब यह निशाना बना चुकी है, कृषि कानूनों को hold कर अथवा वापस कर ज्यादा से ज्यादा वह और अधिक टकराव से किसी तरह बच सकती है, पर किसानों का विश्वास पुनः हासिल कर पाना उसके लिए लगभग असंभव है।किसान-पक्षीय नई नीतियों की इससे उम्मीद तो किसान पहले ही छोड़ चुके हैं। जाहिर है, किसानों के प्रबल समर्थन से देश राजनैतिक सत्ता परिवर्तन की तरफ बढ़ता जाएगा, जिसकी मुखर शुरुआत उप्र के चुनाव परिणाम से हो सकती है, इसका ripple effect मार्च-अप्रैल में होने वाले बंगाल असम, तमिलनाडु, केरल आदि चुनावों में भी पड़ना तय है।
पर यह आंदोलन यहीं रुकेगा नहीं। यह अन्य संघर्षरत तबकों के साथ मिलकर वैकल्पिक अर्थनीति और राजनीति की ओर बढ़ने का potential अपने अंदर समेटे हुए है।
किसान-आंदोलन कारपोरेट अर्थनीति के बरअक्स केवल जनपक्षीय, किसान-पक्षीय नई अर्थनीति के लिए ही नहीं लड़ रहा है, वरन बहुलतावादी मूल्यों और साझे संघर्षों पर आधारित समावेशी राष्ट्रीय एकता और लोकतंत्र के नए मॉडल के साथ एक नए राजनीतिक तंत्र ( polity ) के लिए भी लड़ रहा है, जहां राष्ट्र का अर्थ जनता होगा, जहां विरोध और असहमति का अधिकार non-negotiable होगा, जहां नीति निर्माण का आधार जनता के गरिमामय, आजीविका सम्पन्न जीवन के लिए environment-friendly, sustainable विकास होगा, न कि कारपोरेट मुनाफाखोरी ।