संघ क्या चाहता है, रामचंद्र गुहा उठा रहे हैं कुछ सवाल

गांधी के आखिरी सचिव प्यारेलाल ने अपनी किताब महात्मा गांधीः द लास्ट फेज, में लिखा है कि ‘1947 के भारत के विभाजन और उससे उपजी भयावह हिंसा ने हिंदू अंधराष्ट्रवाद की उर्वर जमीन तैयार की। हिंदू मध्य वर्ग और यहां तक कि सरकारी सेवाओं में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की घुसपैठ इसका सबसे गंभीर प्रमाण था। इसने हिंदू कांग्रेसजनों के प्रति भी सहानुभूति रखने का गुप्त संदेश देना शुरू कर दिया था।’
इसके बाद प्यारेलाल ने अपने पाठकों के सामने खाका खींचा कि आखिर हिंदू अंधराष्ट्रवाद के लिए खड़ा यह संगठन है क्या और उसके क्या लक्ष्य हैं। उन्होंने लिखा, ‘आरएसएस एक सांप्रदायिक, अर्ध सैन्य, फासीवादी संगठन है, जिसे महाराष्ट्र से नियंत्रित किया जाता है…इसका घोषित उद्देश्य हिंदू राज की स्थापना करना है। उन्होंने नारा दिया था, “मुस्लिमों भारत से बाहर जाओ।” जिस समय वह खुले रूप में सक्रिय नहीं थे, तब उन्होंने संकेत किया था कि वे इंतजार कर रहे हैं कि कब पश्चिमी पंजाब से सारे हिंदुओं और सिखों को बाहर निकाला जाता है। इसके बाद, पाकिस्तान ने जो कुछ किया था, उसका बदला वे भारतीय मुस्लिमों से लेंगे।’
नव स्वतंत्र भारत विभाजन के घावों और शरणार्थियों की दुर्दशा से जूझ रहा था और उसे भीतर से एक गंभीर खतरे का सामना करना पड़ा। यह था हिंदू अंधराष्ट्रवाद का बढ़ता ज्वार। 1947 के उत्तरार्द्ध में आरएसएस ने हिंदू मध्य वर्ग, वरिष्ठ अधिकारियों और राजनेताओं में पैठ बना ली। लेकिन दो असाधारण हिंदू मजबूती के साथ सांप्रदायिकता और अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ खड़े थे। वे उन मुस्लिमों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार थे, जिन्होंने भारत में रहना पसंद किया था। ये उल्लेखनीय हिंदू थे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उनके गुरु महात्मा गांधी। जैसा कि प्यारेलाल ने लिखा, ‘गांधी जी जीते जागते इस त्रासदी का गवाह बनने को तैयार नहीं थे। अब मुस्लिम भारतीय संघ में अल्पसंख्यक थे। आखिर उन्हें भारतीय संघ में समान नागरिक के रूप में अपने भविष्य को लेकर असुरक्षित महसूस करना चाहिए?…उन्हें किसी को भी भय में जीवन जीते और सिर उठाकर न चल पाने की उसकी विवशता को देखकर पीड़ा होती थी। वह हमेशा निर्बल लोगों के हक की आवाज उठाने के लिए उत्सुक रहते थे और खुद को वंचितों से जोड़कर देखते थे, और उन्होंने खुद को भारतीय मुस्लिमों के प्रति समर्पित कर दिया था।’
सत्तर वर्ष पहले की घटनाओं के बारे में इन शब्दों को पढ़ना हिदायत जैसा लगता है। 1947 के उत्तरार्द्ध में भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में आरएसएस की बेहद मामूली जगह थी। उसने उस समय के सांप्रदायिक तनाव का इस्तेमाल कर अपना प्रभाव बढ़ाना चाहा; भारत के सौभाग्य से गांधी और नेहरू के संकल्प से इस संगठन का उभार थम गया। नेहरू ने अपनी सरकार में हर किसी को स्पष्ट कर दिया था कि भारत का हिंदू पाकिस्तान बनने का कोई इरादा नहीं है, जबकि गांधी ने हिंदू-मुस्लिम सौहार्द के लिए कलकत्ता और दिल्ली में सफलतापूर्वक उपवास किया। 30 जनवरी, 1948 को आरएसएस से जुड़े रहे एक व्यक्ति ने गांधी की हत्या कर दी; उनकी शहादत ने हिंदुओं को भयभीत और शर्मिंदा कर दिया, उन्हें झकझोर दिया। कुछ देर के लिए आरएसएस की योजना बाधित हो गई।
अब जब मैं यह लेख लिख रहा हूं आरएसएस हाशिये पर नहीं है, बल्कि भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में उसका प्रभुत्व है। उसके राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी की केंद्र और कई राज्यों में सरकारें हैं। हिंदू मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा उनके राजनीतिक और वैचारिक एजेंडा का प्रच्छन्न नहीं, बल्कि मुखर समर्थक है। शीर्ष नौकरशाह, शीर्ष राजनयिक, यहां तक कि सैन्य अधिकारियों ने संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता त्याग दी है और वे हिंदुत्व और सत्तारूढ़ दल के समर्थक बन गए हैं।
प्यारेलाल ने 1947 में आरएसएस की केंद्रीय विचारधारा के बारे में लिखा, ‘उनका घोषित लक्ष्य हिंदू राज की स्थापना करना है। उनका नारा है, मुस्लिमों भारत छोड़ो।’ इस वाक्य का पहला हिस्सा पूरी तरह से कायम है। दूसरे हिस्से में सुधार किया गया है। विभाजन की त्रासदी के बाद आरएसएस के अनेक नेता चाहते थे कि भारत मुस्लिमों से पूरी तरह से छुटकारा पा ले। हालांकि 1950 के दशक में उन्हें एहसास हुआ कि यह अब व्यावहारिक नहीं है। यह समुदाय बहुत बड़ा था और पूरे देश में फैला था, इसलिए पूरी तरह से उन्हें निकालना किसी की भी कल्पना से परे था। भारतीय मुस्लिमों के प्रति आरएसएस का दृष्टिकोण बदल गयाः जो मुस्लिम यहां पैदा हुए और यहां रह रहे हैं, वे इस देश में तब तक रह सकते हैं जब तक वे हिंदुओं की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्थानिक और नैतिक सर्वोच्चता को स्वीकार करते हैं।
मैंने कहीं लिखा है कि आरएसएस का राजनीतिक आदर्श विडंबनात्मक रूप से मध्य युगीन इस्लाम से लिया गया लगता है। खलीफा के चरम दिनों में मुस्लिमों के पास स्पष्ट रूप से यहूदियों और ईसाइयों से अधिक अधिकार थे। बल्कि यहूदियों और ईसाइयों का न केवल उत्पीड़न होता था, बल्कि उन्हें अपने परिवार की परवरिश और आजीविका के लिए कमतर या दूसरे दर्जे की हैसियत को स्वीकार करना पड़ता था।
अध्येताओं ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के इतिहास और उसके समाजशास्त्र पर अनेक गंभीर किताबें लिखी हैं। दूसरी ओर आरएसएस ने भी गैर सदस्यों को यह बताने के लिए दर्जनों किताबें तथा पम्फलेट्स प्रकाशित करवाए हैं कि उनकी विचारधारा क्या है। आरएसएस की विचारधारा और कार्यक्रम को छह शब्दों में समेटा जा सकता हैः हम मुस्लिमों को उनकी जगह दिखाएंगे।
आरएसएस दावा करता है कि वह हिंदू गौरव की पुनर्प्राप्ति, पुनरुत्थान और पनुर्स्थापना के लिए लड़ रहा है। हालांकि, व्यवहार में, संगठन और उससे जुड़े राजनीतिक दल की मान्यताएं और कार्य गर्व के बजाय पूर्वग्रह तथा व्यामोह से निर्धारित होते लगते हैं। केंद्र सरकार तथा भाजपा शासित राज्य सरकारों की हाल की कार्रवाइयों पर विचार कीजिए। जम्मू और कश्मीर का राज्य के रूप में अंत, अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर विजयीभाव, अंतर धार्मिक विवाह के खिलाफ कानून और नागरिकता संशोधन विधेयक तथा शांतिपूर्ण तरीके से इसका विरोध करने वालों का उत्पीड़न, ये सभी अनिवार्य रूप से मुस्लिमों को उनकी जगह दिखाने की इच्छा से अनुप्राणित हैं।
प्यारेलाल ने अपनी किताब महात्मा गांधीः द लास्ट फेज में दिल्ली में सितंबर, 1947 में हुए एक संवाद के बारे में लिखा, जिसके वह गवाह थे। उन्होंने लिखाः ‘गांधीजी की पार्टी के एक सदस्य ने कहा कि आरएसएस के लोगों ने शरणार्थी शिविर में अच्छा काम किया। उन्होंने कठोर परिश्रम करने के लिए अनुशासन, साहस और क्षमता का प्रदर्शन किया। इस पर गांधीजी ने जवाब दिया, यह नहीं भूलना चाहिए कि हिटलर के नाजी और मुसोलिनी के अधीन फासीवादी भी ऐसे ही थे। उन्होंने आरएसएस को एक अधिनायकवादी दृष्टिकोण के साथ सांप्रदायिक संगठन करार दिया।’
आरएसएस के बारे में गांधी के दृष्टिकोण का बहत्तर साल बाद क्या अर्थ है? वास्तव में बहुत अधिक अर्थ है, उन्होंने जो विशेषण इस्तेमाल किए थे बस वे उलट गए हैं। 1947 में आरएसएस भारतीय जीवन के हाशिये पर था; 2019 में यह व्यापक रूप से प्रभावी है। केंद्र सरकार को नियंत्रित करने वाले आरएसएस के सदस्यों ने प्रेस को अधीन कर लिया है, न्यायपालिका को साध लिया है और भ्रष्टाचार तथा दबाव की आड़ में अन्य दलों की राज्य सरकारों को दबा रहे हैं या उन्हें सत्ता से बाहर करने की कोशिश कर रहे हैं। आरएसएस और भाजपा राजनीतिक प्रक्रिया पर, राज्य के संस्थानों पर, नागरिक समाज पर, यहां तक कि लोग क्या खाते हैं, कैसे कपड़े पहनते हैं और किससे शादी कर सकते हैं या नहीं कर सकते हैं, इस पर प्रभुत्व हासिल करना चाहते हैं।
देश में जीवन के हर पहलू को नियंत्रित करने की यह इच्छा, चाहे वह राजनीतिक, सामाजिक, संस्थागत, या वैचारिक हो, पूरी तरह से ‘अधिनायकवाद’ की परिभाषा के अनुकूल है। मुस्लिमों को कलंकित करने और खतरा बताने का प्रयास ‘सांप्रदायिक मानसिकता’ को ही दिखाता है। महात्मा गांधी ने 1947 के उत्तरार्द्ध में राष्ट्रीय स्वयं संघ के बारे में जो कहा था, वह आज भी पूरी तरह से सही है।
साभार : अमर उजाला